Wednesday, May 22, 2013

'खंभा' बताएगा कलयुग के अंत की कहानी


गंगोलीहाट। उत्तराखंड के गंगोलीहाट (जिला पिथोरागढ़) में स्थित पाताल भुवनेश्वर नामक एक रहस्यमयी गुफा है, जहां एक खंभा गढ़ा हुआ है। इस खंभे के बारे में मान्यता है कि यह लगातार बढ़ रहा है। स्कंद पुराण में इसका उल्लेख मिलता है।
मान्यता अनुसार यह खंभा है कलयुग का प्रतीक। अभी यह खंभा 6 इंच का है लेकिन जब यह खंभा बढ़कर जिस दिन गुफा की छत पर पहुंचेगा उस दिन खत्म हो जाएगा कलयुग और फिर से लौटेगा सतयुग।
लोग मानते हैं कि तब भयानक प्रलय होगा और चारों और तबाही का मंजर होगा। इस कलयुग के प्रतीक खंभे के अलावा भी यहां और भी कई छोटे-छोटे खंभे हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि इन खंभों से दूसरे युग की कहानी जुड़ी है।
जिला पिथौरागढ़ की तहसील को गुफाओं वाला देव कहा गया है। पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट क्षेत्र में महाकाली मंदिर, चामुंडा मंदिर, गुफा मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है यहां की रहस्यमय गुफा।
पर्वतों, चीड़, देवदार व पहाड़ी नदियों से घिरा यह सुनसान और सुरम्य स्थान नैसर्गिक सौंदर्य का खजाना है। धरती से 90 फीट और समुद्र तल से लगभग 1350 मीटर पर बनी इस गुफा में स्थित सैंकड़ों मूर्तियों और खंभों का रहस्य कोई नहीं जानता। यह पूरा क्षेत्र महादेव जी की रहस्यमयी नगरी के नाम से भी जाना जाता है।
इस गुफा में प्रवेश का एक संकरा रास्ता है जो कि करीब 100 फीट नीचे जाता है। नीचे एक-दूसरे से जुड़ी कई गुफाएं है। यह गुफाएं पानी ने लाइम स्टोन (चूना पत्थर) को काट कर बनाईं हैं। मंदिर के अंदर संकरे पानी की धारा से होते हुए गुफा में जाना होता है। किंवदन्ती है कि यहां पर पाण्डवों ने तपस्या की और कलियुग में आदि शंकराचार्य ने इसे पुनः खोजा।
उत्तराखंड के कुंमाऊं मंडल के प्रसिद्ध नगर अल्मोड़ा से शेराघाट होते हुए 160 किलोमीटर की दूरी तय कर पहाड़ी वादियों के बीच बसे सीमांत कस्बे गंगोलीहाट की पाताल भुवनेश्वर गुफा किसी आश्चर्य से कम नही है। यहां पहुंचने के रास्ते में दिखाई देती हैं धवल हिमालय पर्वत की नयनाभिराम नंदा देवी, पंचचूली, पिंडारी, ऊंटाधूरा आदि चोटियां। source-webdunia.

पानी के लिए नौलों को सुरक्षित रहना ही होगा

पानी के लिए नौलों को सुरक्षित रहना ही होगा
अमर उजाला

अल्मोड़ा नगर, जिसे चंद राजाओं ने 1563 में राजधानी के रूप में बसाया था, परंपरागत जल प्रबंधन का दिलचस्प उदाहरण है। जल स्रोतों की दृष्टि से यह कभी समृद्ध माना जाता था। यहां 360 नौले थे जो नगर की जलापूर्ति करते थे। इन नौलों में चम्पानौला, घासनौल, मल्ला नौला, कपीना नौला, सुनारी नौला, उमापति का नौला, बालेश्वर नौला, बाड़ी नौला, नयालखोला नौला, खजांबी नौला, हाथी नौला, डोबा नौला, दुगालखोला नौला आदि प्रमुख हैं। लेकिन अपनी स्थापना के लगभग 450 वर्षों बाद अल्मोड़ा के अधिकांश जल स्रोत इतिहास की धरोहर बन चुके हैं और वो अपनी अंतिम अवस्था में है। अल्मोड़ा के निकट 14-15वीं शताब्दी के लगभग निर्मित स्यूनराकोट का नौला आज भी मौजूद है। बावड़ी के चारों ओर बरामदा है, जिसमें प्रस्तर प्रतिमाएं लगी हुई हैं। मुख्य द्वार के सामने दो नक्काशीदार स्तम्भ बने हुए हैं। बावड़ी की अंडाकार छत कलात्मक रूप से विचित्र है। यह अल्मोड़ा जनपद का सबसे प्राचीन एवं कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ नौला है। 

चम्पावत का बालेश्वर नौला आज भी अपने पुराने वैभव की कहानी कहता है। बड़ी प्रस्तर शिलाओं पर सुंदर नक्काशियां उकेरी गई हैं। इस पर उत्कीर्ण शिलालेख बताते हैं कि राजा कूर्मचंद ने 1442 ई. में इनका जीर्णोद्धार किया। चम्पावत – मायावती पैदल मार्ग पर स्थित ‘एकहथिया नौला’ कुमाऊं की प्राचीन स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है। लोगों का विश्वास है कि इस नौले का निर्माण एक हाथ वाले शिल्पी ने किया था। उनके पास अनूठी कलाकृति के रूम में विद्यमान इस नौले के रचना काल और निर्माणकर्ता के संबंध में कोई और जानकारी नहीं है। संभव है कभी यहां अच्छे खेतिहरों की बस्तियां रही होंगी और यह किसी राजमार्ग के मध्य में पड़ता होगा। अब तो यहां देवदार और बांज के वृक्षों का घना जंगल है।

चम्पावत के ग्राम डुंगरा का नागनौला छादित सोपानयुक्त है। चम्पावत क्षेत्र में ही पाटण के नौले में गर्भगृह की दीवारों पर देवताओं की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। संपूर्ण नौले में मनुष्यों, जानवरों व पक्षियों के भी सुंदर अलंकरण हैं। नौले का निर्माण लगभग चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी में किया जान पड़ता है।

पिथौरागढ़ नगर के निकट जाखपुरान और थरकोट क्षेत्र में ऐतिहासिक नौलों की पूरी श्रृंखला मौजूद है। बालाकोट के पास हाट-बोरगांव का नौला इस क्षेत्र का सर्वश्रेष्ठ नौला है। स्थापत्य की दृष्टि से इसे उत्तराखंड का संभवतः सबसे सुंदर नौला कहा जा सकता है और अपने आप में यह एक संग्रहणीय धरोहर है। यह नौला आज भी गांव की पेयजल ज़रूरतों को पूरा करता है। हालांकि रख-रखाव के लिहाज से इसकी हालत अच्छी नहीं कही जा सकती। पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट क्षेत्रों में भी अनेक प्राचीन नौले हैं। गंगोलीहाट के काली मंदिर के निकट राजा रामचंद्र देव द्वारा 1263 ई. में निर्मित जान्हवी नौला है, जिसे अब काफी हद तक परिमार्जित किया जा चुका है। नौले के बरामदे की बाईं दीवार के एक चिकने पत्थर पर देवनागरी लिपि में एक अभिलेख उत्कीर्ण है। बेरीनाग के निकट पुंगेश्वर का नौला बाहर से रिहायशी भवन की तरह दिखाई पड़ता है। 

कुमाऊँ के अलावा हिमाचल प्रदेश और नेपाल में भी नौले पाए जाते हैं। ये हिमालयवासियों की समृद्ध-प्रबंध परंपरा के प्रतीक हैं। आज जरूरत इस बात की है कि इतिहास की इस महत्वपूर्ण धरोहर को न सिर्फ सुरक्षित रखा जाए, बल्कि जल संकट के गहराते बादलों के बीच इसकी निर्माण तकनीक का भी संरक्षण व पुनरुद्धार किया जाए। 

Saturday, April 13, 2013

नैनीताल !

नैनीताल !    देवभूमि उत्तराखण्ड के विश्व प्रसिध्द नैनी झील के संरक्षण के लिए किये जा रहे अनेक प्रयासों के बीच एक क्षेत्र ऐसा है, जिस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस कारण झील में बड़ी मात्रा में गंदगी पहुंच रही है। यह कारण है सीवर का उफनना। सीवर के उफनने से झील में मानव मल में पाये जाने वाले खतरनाक कोलीफार्म बैक्टीरिया व नाइट्रोजन की मात्रा में 10 से 15 गुना तक की वृध्दि हो जाती है, जबकि फास्फोरस की मात्रा तीन गुना तक बढ़ जाती है। इस कारण झील में पारिस्थितिकी सुधार के लिए किये जा रहे कार्य को गहरा झटका लग रहा है। मानव मल में मौजूद कोलीफार्म बैक्टीरिया तथा फास्फोरस व नाइट्रोजन जैसे तत्व किसी भी जल राशि को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। शुध्द जल में कोलीफार्म बैक्टीरिया की मौजूदगी भर हो तो यह पीलिया जैसे अनेक जल जनित संक्रामक रोगों का कारण बनता है। जबकि नैनी झील जैसी खुली जल राशियों में अधिकतम 500 एमपीएन (मोस्ट प्रोबेबल नंबर) यानी एक लीटर पानी में अधिकतम मात्रा हो तो ऐसे पानी को छूना व इसमें तैरना बेहद खतरनाक हो सकता है। नैनी झील में कोलीफार्म बैक्टीरिया की मात्रा कई बार आठ से 10 हजार एमपीएन तक देखी गई है, जोकि झील में चल रहे एरियेशन व बायोमैन्युपुलेशन के कार्य के बाद सामान्यतया दो से तीन हजार एमपीएन तक नियंत्रित करने में सफलता पाई गई है, लेकिन बरसात के दिनों में उफनने वाली सीवर लाइनें इन प्रयासों को पलीता लगा रही हैं। नैनी झील के जल व पारिस्थितिकी पर शोधरत कुमाऊं विवि के जंतु विज्ञान विभाग के प्रो. पीके गुप्ता बताते हैं कि झील का जलस्तर कम होने पर सीवर उफनती है तो झील में कोलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या 10 से 15 गुना तक बढ़ जाती है। इसी तरह नाइट्रोजन की मात्रा 0.3 मिलीग्राम प्रति लीटर से तीन गुना बढ़कर 0.8 से 0.9 मिलीग्राम प्रति लीटर तक एवं फास्फोरस की मात्रा 20 से 25 मिलीग्राम प्रति लीटर से 10 गुना तक बढ़कर 200 से 250 मिलीग्राम प्रति लीटर तक देखी गई है। जल निगम के अधिशासी अभियंता एके सक्सेना का कहना है कि नगर में सामान्य जरूरत से अधिक क्षमता की सीवर लाइन बनाई गई थी, लेकिन घरों व किचन तथा बरसाती नालियों के पानी को भी लोगों ने सीवर लाइन से जोड़ दिया है, इस कारण सीवर लाइन उफनती हैं, इसे रोकने के लिये नालियों को सीवर लाइन से अलग किया जाना जरूरी है। भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान रुड़की की अगस्त 2002 की रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि नगर में 72 फीसद लोग खुले में शौच करते हैं, जिनकी मल-मूत्र की गंदगी नगर के हृदय कही जाने वाली नैनी झील में जाती है। गौरतलब है कि नगर के कमजोर तबके के लोगों के साथ ही सैलानियों के साथ आने वाले वाहन चालकों, बाहरी नेपाली व बिहारी मजदूरों का खुले में शौच करना आम है। झील विकास प्राधिकरण ने नगर में सुलभ शौचालय बनाये हैं पर उनमें हर बार तीन रुपये देने होते हैं, इस कारण गरीब तबका उनका उपयोग नहीं कर रहा। बारिश में ऐसी समस्त गंदगी नैनी झील में आ जाती है। नैनी झील में भारी मात्रा में जमा हो रहे फास्फोरस तत्व को निकालने को एकमात्र तरीका झील में पल रही मछलियों को निकालना है। प्रो. गुप्ता के अनुसार फास्फोरस मछलियों का भोजन है। यदि प्रौढ़ व अपनी उम्र पूरी कर रही बड़ी व बिगहेड सरीखी मछलियों को झील से निकाला जाए तो उनके जरिये फास्फोरस बाहर निकाली जा सकती है। उनके झील में स्वतरू मरने की स्थिति में उनके द्वारा खाई गई फास्फोरस झील के पानी में ही मिल जाएगी।

Monday, March 04, 2013

कुमाऊँ पर्यटन महासागर


वाणासुर का क़िला
उत्तराखंड चम्पावत में स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। इस स्थान के विषय में यह माना जाता है कि श्रीकृष्ण ने दैत्य वाणासुर का वध यहीं पर किया था। यह क़िला लोहाघाट से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर 'कर्णरायत' नामक स्थान के पास स्थित है। कर्णरायत से वाणासुर क़िले तक लगभग 1.5 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करने के उपरांत पहुँचा जा सकता है।
किंवदंती है कि इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा वाणासुर का वध किया गया था, क्योंकि उसने श्रीकृष्ण के पौत्र का अपहरण कर लिया था। यहाँ पर पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मशहूर क़िला आज भी विद्यमान है। इस स्थल से एक ओर हिमालय की भव्य पर्वत श्रृंखलाओं का दृश्य देखा जा सकता है तो दूसरी ओर लोहाघाट सहित 'मायावती अद्वैत आश्रम' एवं अन्य नैसर्गिक छटाओं का भी आनन्द लिया जा सकता है।
आदिगुरु गोरखनाथ
आदिगुरु गोरखनाथ की धूनी चम्पावत से लगभग 33 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। चनामक स्थान से इस स्थल हेतु लगभग 1.5 कि.मी. की दूरी पैदल तय करने के उपरांत इस स्थान पर पहुंचा जा सकता है। जनश्रुति है कि यह धूनी सतयुग से लगातार प्रज्वलित है। यह स्थल नैसर्गिक सौंदर्यता से परिपूर्ण है।
वाराही मंदिर
उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर जिसे देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता हैं। समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर (लगभग पाँच हजार फीट) की उँचाई पर स्थित है। धार्मिक आस्था के साथ ही नैसर्गिक सौंदर्य के लिये भी यह स्थल महत्वपूर्ण है। इस स्थल पर जाने हेतु लोहाघाट से लगगभग 60 कि.मी. के मोटर मार्ग से पहुँचा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के पूर्व सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न थी तब प्रजापति ने वाराह बनकर उसका दाँतो से उद्धार किया उस स्थिति में अब दृष्यमान भूमाता दंताग्र भाग में समाविष्ट अंगुष्ट प्रादेश मात्र परिमित थी। ‘‘ओ पृथ्वी! तुम क्यों छिप रही हो?’’ ऐसा कहकर इसके पतिरूप मही वाराह ने उसे जल में मध्य से अपने दन्ताग्र भाग में उपर उठा लिया। यही सृष्टि माँ वाराही हैं! देवीधुरा में सिद्धपीठ माँ वाराही के मंदिर परिसर के आस पास भी पर्यटकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्य स्थलों में खोलीगाँड, दुर्वाचौड, गुफ़ा के अंदर बाराही शक्ति पीठ का दर्शन, परिसर में ही स्थित संस्कृत महाविद्यालय परिसर, शंखचक्र घंटाधर गुफ़ा, भीमशिला और गवौरी प्रवेश द्वार आदि प्रमुख हैं।
मीठा रीठा साहिब
लोहाघाट, उत्तराखंड से लगभग 64 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
इतिहास
सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह यहाँ आये थे एवं उन्होंने यहाँ पर 'रीठे के वृक्ष' के नीचे विश्राम किया था। गुरु के प्रताप से उनके शिष्य ने जिस वृक्ष से अपनी क्षुधा शान्त करने हेतु रीठे तोडे थे, उस वृक्ष के रीठे मीठे हो गये थे। इस स्थल को 'मीठा रीठा साहिब' भी कहा जाता है। यहाँ पर सिक्खों द्वारा भव्य गुरुद्वारा निर्मित किया गया है। प्रति वर्ष वैशाखी पर यहाँ पर बहुत विशाल मेले का आयोजन भी किया जाता है।
एक हथिया देवाल
एक अभिशप्त देवालय का नाम है। यह सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ (उत्तराखंड) के कस्बे थल से लगभग छः किलोमीटर दूर ग्राम सभा बल्तिर में स्थित है।
किंवदंती
इस देवालय के विषय में किंवदंती है कि इस ग्राम में एक मूर्तिकार रहता था, जो पत्थरों को काट-काट कर मूर्तियाँ बनाया करता था। एक बार किसी दुर्घटना में उसका एक हाथ खराब हो गया। अब वह मूर्तिकार एक हाथ के सहारे ही मूर्तियाँ बनाना चाहता था, परन्तु गाँव के कुछ लोगों ने उसे यह उलाहना देना शुरू कर दिया कि अब एक हाथ के सहारे वह क्या कर सकेगा? लगभग सारे गाँव से एक जैसी उलाहना सुन-सुनकर मूर्तिकार खिन्न हो गया। उसने प्रण कर लिया कि वह अब उस गाँव में नहीं रहेगा और वहाँ से कहीं और चला जायेगा। यह प्रण करने के बाद वह एक रात अपनी छेनी, हथौड़ी और अन्य औजारों को लोकर गाँव के दक्षिणी छोर की ओर निकल पड़ा। गाँव का दक्षिणी छोर प्रायः ग्रामवासियों के लिये शौच आदि के उपयोग में आता था। वहाँ पर एक विशाल चट्टान थी। अगले दिन प्रातःकाल जब गाँववासी शौच आदि के लिए उस दिशा में गये तो पाया कि किसी ने रात भर में चट्टान को काटकर एक देवालय का रूप दे दिया है। कौतूहल से सबकी आँखें फटी रह गयीं। सारे गाँववासी वहाँ पर एकत्रित हुये, परन्तु वह कारीगर नहीं आया जिसका एक हाथ कटा था। सभी गाँववालों ने गाँव में जाकर उसे ढूँढा और आपस में एक-दूसरे से उसके बारे में पूछा, परन्त्तु मूर्तिकार के बारे में कुछ भी पता न चल सका। वह एक हाथ का कारीगर गाँव छोड़कर जा चुका था। जब स्थानीय पंडितों ने उस देवालय के अंदर उकेरे गए भगवान शंकर के लिंग और मूर्ति को देखा तो यह पता चला कि रात्रि में शीघ्रता से बनाये जाने के कारण शिवलिंग का अरघा विपरीत दिशा में बनाया गया है, जिसकी पूजा फलदायक नहीं होगी बल्कि दोषपूर्ण मूर्ति का पूजन अनिष्टकारक भी हो सकता है। इसी के चलते रातों रात स्थापित हुये उस मंदिर में विराजमान शिवलिंग की पूजा नहीं की जाती। पास ही बने जल सरोवर में, जिन्हे स्थानीय भाषा में 'नौला' कहा जाता है, मुंडन आदि संस्कार के समय बच्चों को स्नान कराया जाता है।
त्रिऋषि सरोवर
त्रिऋषि सरोवर का उल्लेख स्कन्द पुराण में हुआ है। आधुनिक नैनीताल की नैनी झील को ही ऋषि अत्रि, पुलह और पुलस्त्य के नाम पर ही 'त्रिऋषि सरोवर' कहा गया है। पौराणिक किंवदंती के अनुसार इन ऋषियों ने इस झील के तट पर प्राचीन काल में तप किया था।
मान्यताएँ
यह माना जाता है कि जब तीनों ऋषि (अत्रि, पुलह और पुलस्त्य) नैनीताल की यात्रा करते-करते गागर पहाड़ी श्रृंखला की उस चोटी पर पहुँचे, जिसे वर्तमान समय में अब 'चाइना पीक' के नाम से जाना जाता है, तब वे प्यास से व्याकुल हो उठे। उन्हें इस स्थान में पानी नहीं मिला। तीनों ऋषि प्यास से बेहाल थे। ऐसे समय में तीनों ऋषियों ने 'मानसरोवर' का ध्यान किया और ज़मीन में बड़ा-सा छेद कर दिया। कुछ ही समय बाद वह छेद मानस जल से भर गया। तब ऋषियों ने इस जल से अपनी प्यास शांत की। उनके द्वारा सृजित इस झील का नाम 'त्रिऋषि सरोवर' पड़ा। एक अन्य मान्यता यह भी है कि इस सरोवर में स्नान करने से वही फल प्राप्त होता है, जो मानसरोवर में स्नान करने से मिलता है। बाद में इस झील का नाम 'नैनी झील' उस देवी के नाम पर पड़ा, जिसका मंदिर इस झील के किनारे स्थित है। 1880 ई. के भूस्खलन में यह मंदिर नष्ट हो गया था, जिसे फिर से पुन: उस स्थान पर बनाया गया, जहाँ यह इस समय स्थित है।
नैनी झील
उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र के नैनीताल ज़िले में स्थित है। इस झील के तट पर नैनीताल नगर स्थित है। इस नगर एवं झील का नाम सम्भवतः यहाँ स्थित नैनी देवी के नाम पर पड़ा है। पर्यटकों के लिए यह सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत जगह है। ख़ासतौर से तब जब सूरज की किरणें पूरी झील को अपनी आग़ोश में ले लेती हैं। यह चारों तरफ से सात पहाड़ियों से घिरी हुई है। नैनीताल में नौंकायें और पैडलिंग का भी आनंद उठाया जा सकता है। मुख्य शहर से तक़रीबन ढाई किमी दूर बनी नैनी झील तक पहुँचने के लिए केवल कार का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले पर्यटन स्थलों में से एक है।
स्थिति
झील के चारों ओर केवल दक्षिण पूर्वी भाग को छोड़कर ऊँचे पहाड़ है। इस ताल की लम्बाई 1500 मीटर, चौड़ाई 42 मीटर और गहराई 30 मीटर है।
पर्यटन
पर्यटकों के लिए यह सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत जगह है। ख़ासतौर से जब सूरज की किरणें पूरी झील को अपनी आग़ोश में ले लेती हैं।
नैनीताल बोट हाउस क्लब
यह चारों तरफ से सात पहाड़ियों से घिरी हुई है। नैनीताल में नौंकायें और पैडलिंग का भी आनंद उठाया जा सकता है। मुख्य शहर से तक़रीबन ढाई किमी दूर बनी नैनी झील तक पहुँचने के लिए केवल कार का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले टूरिस्ट स्थलों में से एक है। यह झील अत्यन्त मनोरम एवं नैसर्गिक सौंदर्य उपस्थित करती है। इस झील में कई प्रकार की मछलियाँ भी है। इस झील में नौका विहार बहुत किया जाता है।