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Thursday, February 14, 2013

द्वादश ज्योर्तिलिंगों में एक जागेश्वर धाम


वैदिक काल से ही ऋषि-मुनियों की तपस्थली के रूप में विख्यात उत्तराखंड समृद्ध आध्यात्मिक संस्कृति का केंद्र रहा है। मध्य हिमालय का यह क्षेत्र जिस प्रकार अपने मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्वविख्यात है, उसी तरह इसका प्राचीन वैभव भी अत्यंत विशिष्टï एवं गौरवशाली रहा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘कुमाऊं’ में लिखा है- ‘मानसरोवर से लगा हिमालय का यह भाग भारत के लिए सांस्कृतिक, सांप्रतिक और प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टिï से महत्वपूर्ण है।’ उत्तराखंड में ऐसा कोई स्थान नहीं है जिसे सांस्कृतिक-धार्मिक धरोहर के रूप में देवत्व की संज्ञा न प्राप्त हो। सदियों से यहां के जनमानस में धार्मिक एकरसता की अभूतपूर्व धारा प्रवाहमान रही है। उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास का अमिट अध्याय रहे कत्यूर एवं चंदवंशीय राजाओं ने भी धर्म के प्रति अपनी अटूट आस्था व्यक्त करते हुए अनेक स्थानों पर ऐसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया जिनकी स्थापत्यकला सैकड़ों वर्ष बाद आज भी दर्शनीय है।
अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 35 किमी की दूरी पर जटा गंगा नदी के तट पर बसा जागेश्वर धाम उत्तराखंड के पौराणिक, धार्मिक व ऐतिहासिक स्थलों में एक है। देवदार व मोरपंखी के घने जंगल के बीच जागेश्वर में छोटे-बड़े 164 पुरातात्विक महत्व के मंदिरों का समूह है। 7वीं से 14वीं सदी के मध्य पाषाण शैली के इन भव्य देवालयों का निर्माण कत्यूर व चंदवंशीय राजाओं ने कराया था। मंदिरों की नक्काशी, स्थापत्यकला और द्वार सज्जा देखकर लगता है कि जागेश्वर मध्यकाल में वास्तुकला व मूर्तिकला का विशिष्टï केंद्र रहा होगा। द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक माने जाने वाले इस तीर्थ स्थल को कुमाऊं का काशी भी कहा जाता है।
शिवपुराण व श्रीमद्भागवत गीता में इस धाम का उल्लेख है। हिमालय से सौराष्ट्र तक बारह ज्योतिर्लिंगों की भगवान शिव द्वारा स्थापना का उल्लेख जिस अष्टïपदी श्लोक में किया गया है उसका चौथा पद जागेश्वर से संबंधित है-
‘सेतु बन्धे तू रामेश जगेश दारुका वने।’
स्कंदपुराण के अनुसार जागेश्वर धाम को ही नागेश (दारुकावन) ज्योतिर्लिंग कहा गया है जो यहां मुख्य मंदिर में स्थित है। जागेश्वर धाम में ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के संबंध में कथा प्रचलित है कि टंकण पर्वत से सप्त ऋषियों की पत्नियां यज्ञ के लिए जब कुश लेने गयीं तो वह समाधिस्थ भगवान शिव का मोहक रूप देखकर उन पर मोहित हो गईं। इस पर क्रोधित शिव ने उन्हें श्राप दे डाला। श्राप के निवारण के लिए ऋषियों ने तपस्या की और भगवान शिव ने लिंग रूप में दर्शन दिये।
आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य मगध से नेपाल होते हुए जागेश्वर, बैजनाथ, बद्रीनाथ तथा केदारनाथ गए थे। दारुकावन जागेश्वर में उन्होंने शक्तिपीठ की स्थापना की थी। तब जागेश्वर नेपाल-तिब्बत के महायान बौद्ध धर्म का तीर्थ था। इस बौद्ध धर्म को तिब्बत में बौन या पौन मत भी कहा जाता है। जागेश्वर में बौद्ध देवता पौन की स्थापना शैव-शक्ति पीठ के मंदिर से कुछ दूरी पर की गई थी। जागेश्वर की महत्ता शंकराचार्य के आगमन के उपरांत अगली दो शताब्दियों में इतनी अधिक थी कि मगध की ओर से अनेक यात्री इस मंदिर की यात्रा करते थे। चीनी यात्री ह्वïेनसांग ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में जागेश्वर का वर्णन किया है।
कुमाऊं के प्रमुख मंदिर पुंजों में छोटे मंदिर नागर शिखर वाले तथा बड़े कत्यूरी शिखर वाले हैं। इन सबमें प्राचीनता, विविधता, प्रतिमाओं की संख्या तथा स्थापत्य की विशिष्टïता की दृष्टिï से जागेश्वर का मंदिर समूह संपूर्ण उत्तराखंड में सर्वोपरि है। यह उत्तराखंडवासियों के आराध्य समस्त देवी-देवताओं की मूर्तियों के संग्रहालय जैसा है। मानसखंड में बार-बार इसका महात्म्य गाया गया है।
शिव के विभिन्न नाम रूपों- जागेश्वर, वृद्ध जागेश्वर, मांडेश्वर, मृत्युंजय, दंडेश्वर, गडोरेश्वर, केदार, बैजनाथ, वैद्यनाथ, झांकर सैम, भैरव, चक्रवाकेश्वर, नीलकंठ, बालेश्वर, विश्वेश्वर, बागेश्वर, मुक्तेश्वर-हूणेश्वर, कमलेश्वर, ब्रह्मïकपाल, क्षेत्रपाल सहित यहां पुष्टिïदेवी, चंडिका, लक्ष्मी, नारायणी, शीतला, महाकाली आदि मंदिर हैं। जागेश्वर के पश्चिमी