Friday, December 28, 2012

स्थानीय देवता

सत्यनाथ :
यह संभव है कि सत्यनारायण से इनका संबंध हो।  यह सिद्ध सत्यनाथ या सिद्ध भी कहलाते हैं।  इनकी पूजा गढ़वाल में ज्यादा होती है।  कुमाऊँ में मानिला में ही एक मंदिर इस देवता का है।

भोलानाथ :
'भ्वालनाथ' कहे जाते हैं।  इनकी स्री बमी कहलाती है।  इनको कुछ लोग महादेव का अंग तथा बमी को शक्ति का अंश मानते हैं।  परन्तु इनके उत्पत्ति की कहानी इस प्रकार है - राजा उदयचंद की दो रानियाँ थी, जिनमें से प्रत्येक के एक पुत्र था।  जब दोनों बड़े हुए तो बड़ा राजकुमार बुरी संगति में पड़ने से राज्य से निकाला गया।  छोटा राजकुमार ज्ञानचंद के नाम से गद्दी पर बैठा।  थोड़े दिनों में बड़ा राजकुमार साधु के भेष में अल्मोड़ा आकर नैल पोखर में ठहरा।  वह पहचाना गया।  राजा ज्ञानचंद ने यह समझकर की कहीं गद्दी छिनने को न आया हो, एक बड़िया माली द्वारा उसको तथा उसकी गर्भवती स्री को मार डाला।  राजकुमार की स्री ब्राह्मणी थी।  उससे उन्होंने नियोग कर लिया था।  मृत्यु के बाद वह राजकुमार भोलानाथ केे नाम से भूत हो गया।  ये तीनों भूत अल्मोड़ा को लोगों को सताने लगे, ज्यादातर बड़िया लोगों को।  तब अल्मोड़ा में आठ भैरव मंदिरों का निर्माण हुआ -

१. काल भैरव

२. बटुक भैरव

३. भाल भैरव

४. शै भैरव

५. गढ़ी भैरव

६. आनंद भैरव

७. गौर भैरव

८. खुटकूनियाँ

दूसरी कहानी यह है कि कोई फकीर किसी प्रकार दरवाजा बंद होने पर भी रनवास में चला गया, जहाँ राजा व रानी बैठे थे।  राजा ने क्रोध में आकर उस फकीर को मार डाला।  राजा को भूत चिपट गया।  वह सो न सका, चारपाई से नीचे गिराया गया।  चारपाई ऊपर हो गई।  तब राजा ने पंडितों की राय से ये मंदिर बनवाये।

गंगानाथ :
यह शुद्रों का प्रिय देवता है।  डोटी के राजा वैभवचंद का पुत्र पिता से लड़कर साधु हो गया।  घूमता-घामता वह पट्टी सालम के अदोली गाँव में एक ब्राह्मण जोशी की स्री के प्रेम-पाश में फँस गया।  जोशी अल्मोड़ा में नौकर था।  जब उसे मालूम हुआ, तो उसने झपरुवा लोहार की सहायता से अपनी गर्भवती स्री तथा उसके राजकुमार साधु प्रेमी को मरवा डाला।  भोलानाथ की तरह ये तीन प्राणी भी भूत हो गये।  अत: उन्होंने इनका मंदिर बनवाया।

कहते हैं, गंगानाथ बच्चों व खूबसूरत औरतों को चिपटता है।  जब कोई भूत-प्रेत से सताया जावे या अन्यायी के फंदे में फँस जावे, तो वह गंगानाथ की शरण में जाता है।  गंगानाथ अवश्य रक्षा करते हैं।  अन्यायी को दंड देते हैं।  गंगानाथ को पाठा (छोटा बकरा), पूरी, मिठाई, माला, वस्र या थैली, जोगियों की बालियाँ आदि चीजें चढ़ाई जाती हैं।  उसकी स्री भाना को अंग (आंगड़ी), चदर और नथ और बच्चे को कोट तथा कड़े व हसुँली।

मसान खबीस :
ये शमशान के भूत हैं, जो प्राय: दो नदियों के संगम में होते हैं।  काकड़ीघाट तथा कंडारखुआ पट्टी में कोशी के निकट इनके मंदिर भी हैं।  जिस किसी को भूत लगने का कारण ज्ञात न हो, तो वह मसान या खबीस का सताया हुआ कहा जाता है।  मसान काला व कुरुप समझा जाता है।  वह चिता-भ से उत्पन्न होता है।  लोगों के पीछे दौड़ता है।  कोई उसके त्रास से मर जाते हैं, कोई बीमार हो जाते हैं, कोई पागल।  जब किसी को मसान लगा तो 'जागर' लगाते हैं।  कई लोग नाचते हैं।  भूत-पीड़ित मनुष्य पर उर्द व चाँवल जोर से फेंकते हैं।  बिच्छु घास भी लगाते हैं।  गरम राख से अंगारे फेंकते हैं।  भूत-पीड़ित मनुष्य कभी-कभी इन उग्र उपायों से मर जाता है।  खबिस भी मिसान ही सा तेज मिजाज वाला होता है।  वह अँधेरी गुफाओं, जंगलों में पाया जाता है।  कभी वह भैंस की बोली बोलता है कभी भेड़-बकरियों या जंगली सुअर की तरह चिल्लाता है।  कभी वह साधु भेष धारण कर यात्रियों के साथ चल देता है।  पर उसकी गुनगुनाहट अलग मालूम होती है।  यह ज्यादातर रात को चिपटता है।

ग्वाल :
इसको गोरिल, गौरिया, ग्वेल, ग्वाल्ल या गोल भी कहते हैं।  यह कुमाऊँ का सबसे प्रसिद्ध व मान्य ग्राम-देवता है।  वैसे इसके मंदिर ठौर-ठौर में है, पर ज्यादा प्रसिद्ध ये हैं।  बौरारौ पट्टी में चौड़, गुरुड़, भनारी गाँव में, उच्चाकोट के बसोट गाँव में, मल्ली डोटी में तड़खेत में, पट्टी नया के मानिल में, काली-कुमाऊँ के गोल चौड़ में, पट्टी महर के कुमौड़ गाँव में, कत्यूर में गागर गोल में, थान गाँव में, हैड़ियागाँव, छखाता में, चौथान रानीबाग में, चित्तई अल्मोड़ा के पास।

ग्वाल देवता गी उत्पत्ति इस प्रकार से बतायी जाती है - चम्पावद कत्यूरी राजा झालराव काला नदी के किनारे शिकार खेलने को गये।  शिकार में कुछ न पाया।  राजा थककर और हताश होकर दूबाचौड़ गाँव में आये।  जहाँ दो भैंस एक खेत में लड़ रहे थे।  राजा ने उनको छुड़ाना चाहा पर असफल रहे।  राजा प्यासा था।  एक नौकर को पानी के लिए भेजा, पर पानी न मिला, दूसरा नौकर पानी की तलाश में गया।  उसने पानी की आवाज सुनी, तो अपने को एक साधु के आश्रम के बगीचे में पाया।  वहाँ आश्रम में जाकर देखा कि एक सुन्दर स्री तपस्या में मग्न है।  नौकर ने जोर से पुकारा, और स्री की समाधि भंग कर दी।  औरत ने पूछा कि वह कौन है?  स्री ने धीरे-धीरे आँखे खोली और नौकर से कहा कि वह अपनी परछाई  उसके ऊपर न डाले, जिससे उसकी तपस्या भंग हो जाय।  नौकर ने स्री को अपना परिचय दिया, और अपने आने का कारण बताया।  तथा झरने से पानी भरने लगा। तो घड़े का छींट स्री के ऊपर पड़ा तब उस तपस्विनी ने उठकर कहा कि जो राजा लड़ते भैसों को छुड़ा न सका, उसके नौकर जो न करे, सो कम।  नौकर को इस कथन पर आश्चर्य हुआ।  उसने स्री से पूछा कि वह कौन है?  तपस्विनी ने कहा - "उसका नाम काली है, और व राजा की लड़की है।  वह तपस्या कर रही है।  नौकर ने आकर उसकी तपस्या भंग कर दी।' राजा उस पर मोहित हो गये, और उससे विवाह करना चाहा।  राजा उसके चाचा के पास गये। देखा - वह एक कोढ़ी था।  पर राजा काली पर मोहित थे।  उन्होंने उस कोढ़ी को अपने सेवा-सुश्रुषा से संतुष्ट कर लिया, और वह विवाह को राजी हो गया।  अपने चाचा की आज्ञास से उस स्री ने राजा से विवाह कर लिया।  काली रानी गर्भवती हुई। राजा ने रानी से कहा था कि जब प्रसव पीड़ा हो तो वह घंटी बजावे।  राजा आ जाएगा।  रानियों ने छल से घंटी बजाई।  राजा आये, पर पुत्र पैदा न हुआ।  राजा फिर दौरे में चले गए।  रानी के एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ।  अन्य रानियों ने ईर्ष्या के कारण पुत्र को छिपा लिया।  काली रानी की आँखों में पट्टी बाँधकर उसके आगे एक कद्दुू रख दिया।  रानियों ने लड़के को नमक से भरे एक पिंजरे में बन्द कर दिया। पर आश्चर्य है कि नमक चीनी हो गया।  और बच्चे ने उसे खाया।  इधर रानियों ने बच्चे को जिन्दा देखकर पिंजरे को नदी में फेंक दिया।  वहाँ वह मछुवे के जाल में फंसा।  मछुवे के सन्तान न थी।  ईश्वर की देन समझकर वह सुन्दर राजकुमार को अपने घर ले गया।  लड़का बड़ा हुआ और एक काठ के घोड़े पर चढ़कर उस घाट में पानी पिलाने को ले गया, जहाँ वे दुष्ट रानियाँ पानी भरने को जाती थीं।  उनके बर्तन तोड़कर कहने लगा कि वह अपने काठ के घोड़े को पानी पिलाना चाहता है।  वे हँसी, और कहने लगी की क्या काठ का घोड़ा भी पानी पीता है?  उसने कहा कि जब स्री को कद्दुू पैदा हो सकता है तो काठ का घोड़ा भी पानी पीता है।  यह कहानी राजा के कानों में पहुँची।  राजा ने लड़के को बुलाया।  लड़के ने रानियों के अत्याचार की कहानी सुनाई।  राजा ने सुनकर रानियों को तेल की कढ़ाई में पकाये जाने का हुक्म दिया।  बाद में वह राजकुमार राजा बना।  वह अपने जीवन-काल में ही पिछली बातों को जानने के कारण पूजा जाता था।  मृत्यु के बाद तमाम कुमाऊँ में माना जाने लगा।  वह लोहे का पिंजरा गौरी-गंगा में फेंका गया था।

क्षेत्रपाल या भूमियाँ :
यह खेतों का तथा ग्राम सरहदों का छोटा देवता है।  यह दयालु देवता है।  यह किसी को सताता नहीं।  हर गाँव में एक मंदिर होता है।  जब अनाज बोया जाता है या नवान्न उत्पन्न होता है, तो उससे इसकी पूजा होती है, ताकि यह बोते समय ओले (डाल बायल) या जंगली जन्तुओं से उनका बचाव करे, और भंडार में जब अन्न रखा जाये, तो कीड़े और चूहों से उसकी रक्षा करें।  यह न्यायी देवता है।  यह अच्छे को पुरस्कार तथा धूर्त को दंड देता है।  गाँव की भलाई चाहता है।  विवाह, जन्म या उत्सव में इसकी पूजा होती है।  रोट व भेंट चढाई जाती है।  यह सीधा इतना है कि फल-फूल से भी संतुष्ट हो जाता है। जागीश्वर में क्षेत्रपाल का मंदिर है।  वहाँ वह झाँकर-क्षेत्र का रक्षक माना जाता है और झाँकर सैम कहलाता है।  (सैम शब्द स्वयंभू शब्द का अपभ्रंश है, जो नेपाल में बुद्ध का नाम है - अठकिन्सन) कभी यहाँ बकरे भी मारे जाते हैं।  बौरारौ में भी एक मंदिर है।  सैम व क्षेत्रपाल के कर्तव्यों में कुछ भेद है।  पर यह भी भूत-कक्षा मंे।  कभी-कभी वह लोगों को चिपट जाता है जिसका निशान यह है कि सिर के बालों की जटा बन जाती है।  काली कुमाऊँ में सैमचंद भूत हरु का अनुगामी माना जाता है।

ऐड़ी या ऐरी :
कुमाऊँ के जमींदारों में एक जाति ऐड़ी या ऐरी है।  इस जाति का एक मनिष्य बड़ा पहलवान व बली हुआ।  उसको शिकार खेलने का बहुत शौक था।  वह जब मरा, तो भूत हो गया।  बालकों व स्रियों को चिपटने लगा।  जब उनके बदन में नाचने लगा, तो कहने लगा कि 'वह ऐड़ी या ऐरी है।  उसको हलुवा, पूरी, बकरा वगैरह चढ़ाकर उसकी पूजा करो, तो वह बालको व औरतों को छोड़ देगा"  अब तमाम लोगों में वह इस प्रकार पूजा जाने लगा।  जगह-जगह में उसके मंदिर भी बन गये।  काली कुमाऊँ में इसके मंदिर बहुत हैं। लोग कहते हैं कि ऐड़ी डांडी में चढ़कर बड़े-बड़े मंदिरों में शिकार खेलता है।  ऐड़ी की डांडी ले जाने वाले 'साऊ भाऊ' कहलाते हैं।  जो उसके कुत्ते का भौंकना सुनेगा, वह अवश्य कुछ कष्ट पायेगा।  ये कुत्ते ऐड़ी के साथ में रहते हैं।  उनके गलों में घंटी लगी रहती है।  जानवरों को घेरने के लिए और भूत भी साथ चलते हैं, जिनको परी कहते हैं।  ये 'आँचरी कींचरी' भी कहलाती हैं।  हथियार ऐड़ी का तीर व कमान है।  कभी-कभी जंगल में बिना जख्म का कोई जानवर मरा हुआ पाया जाता है, तो उसे ऐड़ी का मारा हुआ बताते हैं।  यह भी कहते हैं कि कभी-कभी ऐड़ी का चलाया हुआ तीर आले (मकान से धुवाँ निकलने के छेद) में से मकान के भीतर घुस जाता है।  जब किसी मनुष्य को वह लगता है, तो कहते हैं कि लुंज-पुंज हो जाता है।  उसकी कमर टूट जाती है।  बदन सूख जाता है।  हाथ-पैर कांपने लगते हैं।  यह बाबत पहाड़ी किस्सा है। 'डालामुणि से जाणो, जाला मुणि नी सेणो"।  पेड़ के नीचे सो जाना, पर आले के नीचे न सोना चाहिए।

ऐड़ी की सवारी कभी-कभी लोग देखते भी है।  झिजाड़ गाँव का एक किसान किसी काम को गाँव से बाहर गया था।  चाँदनी रात थी।  एकाएक कुत्तों के गले में बँदी घंटी व जानवरों को घेरने की आवाज आई।  किसान ने पहचाना की वह ऐड़ी है।  उसने उसकी डांडी पकड़ ली।  छोड़ने को बहुत कहा, पर उस वीर किसान ने न छोड़ा।  तब वरदान मांगने को कहा।  उसने कहा कि यह वरदान माँगता हूँ कि देवता की सवारी उनके गाँव में नहीं आये।  ऐड़ी ने स्वीकार किया।  कहते हैं कि यदि किसी पर ऐड़ी की न पड़ गई, तो वह मर जाता है, पर ऐसा कम होता है, जो अस्र-शस्रों से सुसज्जित रहते हैं।  ऐड़ी का थूक जिस पर पड़ गया, तो विष बन जाता है।  इसकी दवा 'झाड़-फूँक' है।  ऐड़ी को सामने-सामने देखने से मनुष्य तुरंत मर जाता है, या उसकी आँखों की ज्योति भ हो जाती है, या उसे कुत्ते फाड़ डालते हैं, या परियाँ (आँचरी, कींचरी) उसके कलेजे को साफ कर देती है।  अगर ऐड़ी को देखकर कोई बच जावे, तो वह धनी हो जाता है।  ऐड़ी का मंदिर जंगल में होता है। वहाँ एक त्रिशूल गाड़ा रहता है, जिसके इधर-उधर दो पत्थर रहते हैं, जिन्हें माऊ कहते हैं, और आँचरी, कींचरी भी कहते हैं।  दो दफे नहाते व एक दफे भोजन करते हैं।  किसी को छूने नहीं देते।  इसको दूध, मिठाई, पूरी, नारियल वा बकरा चढ़ाया जाता है।  लाल वस्र खून में रंगाकर वहाँ पर झंडे को तौर पर गाड़ा जाता है।  पत्थरों की पूजा होती है, तब सभी लोग पूरी-प्रसाद खाते हैं।  कहीं-कहीं कुँवार (आश्विन) की नवरात्रियों में भी पूजन होता है।

कलविष्ट :
लगभग २०० वर्ष की बात है कि कोटयूड़ी का पुत्र कलू कोटयूड़ी नाम का एक राजपूत पाटिया ग्राम के पास कोटयूड़ा कोट में रहता था।  उसकी माता का नाम दुर्पाता (द्रोपदा) था।  उसके नाना का नाम रामाहरड़ था।  वह बड़ा वीर व रंगीला नौजवान था।  वह किसान था, पर राजपूत होने पर भी ग्वाले का काम करता था।  वह बिनसर के जंगल में गायें चराता था नदी में नहाने (खाल बैठने) को ब्रह्मघाट (कोशी) में जाता था।

उसके पास ये सामान बताया जाता है -'मुरली, बाँसुरी, मोचंग, परवाई, रमटा, घुंघरवालो, दातुले, रतना, कामली, झपुवा, कुत्तो लखमा, बिराली, खनुवा, लाखो रुमोली, घुमेली, गाई, झगुवा, रांगो (भैंसा), नागुली, भागुली भैंसी, सुनहरी दातुलो, बाखुड़ी भैंस।'

कलविष्ट मुरली खूब बजाता था।  बिनसर में सिद्ध गोपाली के यहाँ दूध पहुँचाता था, और साथ ही श्री कृष्ण पांडेजी की नौलखिया पांडेजी से लड़ाई थी।  वे देश से 'भराड़ी' नामक एक प्रकार के भूत को इस गरज लाये कि वह श्री कृष्ण पांडेजी के खानदान को नष्ट कर दे।  पर कलवृष्ट एक वीर पुरुष था।  वह भूतों को भगाता था।  'भराड़ी' को भी उसने एक नदी (त्यूनरीगाड़) में एक पत्थर के नीचे दबा दिया, और हर तरह से श्री कृष्ण की मदद करता था।  बाद में प्रार्थना करने पर 'भराड़ी' को छोड़ दिया।  नौलखिया पांडे इस प्रकार अपने कार्य में सफलीभूत न होने पर रुष्ट हुआ, और उसने एक चाल चली, जिससे श्री कृष्ण पांडे और कलविष्ट के बीच लड़ाई हो जाए।  उसने यह झूठी खबर उड़ाई कि कलविष्ट श्री कृष्ण पांडेसे गुप्त रुप से मिला है।  श्री कृष्ण दिल में जानता था कि उसकी स्री निर्दोष है, तथापि लोकापवाद को दूर करने के गरज से उसने कलविष्ट को मारने की ठहराई।  श्री कृष्ण राजा का पुरोहित था।  उसने राजा से कलविष्ट की शिकायत की, और उसे मारने को कहा।  राजा ने सभी जगह पत्र भेजे तथा पाँच पान के बीड़े भेजे कि देखें कौन कलविष्ट को मारने का बीड़ा उठाता है।

जयसिंह टम्टा ने बीड़ा उठाया।  राजा ने कलविष्ट को सादर दरबार में बुलाया।  उस दिन श्राद्ध था, उससे दही - दूध लेकर आने को कहा।  कलविष्ट बड़े-बड़े बर्तनों (ठेकों व डोकों) में इतना दही-दूध लेकर गया कि राजा चकित हो गया।  राजा ने कलविष्ट को देखा उसके माथे में त्रिशूल और पैर में पद्म का फूल था।  वह बड़ा वीर और सच्चरित्र पुरुष ज्ञात हुआ। राजा ने कहा, वह उसे न मारेगा।  उसने बड़ी-बड़ी करामते दिखाई। राजा ने एक दिन उसके तथा जयसिंह टम्टा के बीच कुश्त ठहराई।  नाक काटने की शर्त पर कुश्ती ठहरी। राजा, रानी तथा दरबारियों का सामने कुश्ती हुई। कलविष्ट ने जयसिंह टम्टा को चित्त कर दिया, और नाक काट डाली।  दरबार में धाक बैठ गई।  कलविष्ट से बहुत से लोग जलने लगे।  उन्होंने उसे मारने की ठहराई।

दयाराम पछाइ (पालीपछाऊँ के रहने वाले) ने कहा कि कलविष्ट अपने भैसों को लेकर चौरासी माल (तराई भावर) में जावे तो अच्छा हो, वहाँ भैसों के धरने के लिए अच्छा स्थान है।  पर दिल में यह कपट था कि वह (तराई भावर) में खत्म हो जाएगा, या वहाँ मुगलों द्वारा मारा जाएगा।

कलविष्ट नथुवाखान, रामगाड़, भीमताल होकर भावर में गया।  वहाँ १६०० मंगोली सेना उसे मिली।  उनके नेता सूरम व भागू पठान थे।  साथ ही श्री गजुबा ढ़ींगा तथा भागा कूर्मी भी उक्त पठानों से मिल गये।  सब ने उसे मारने की धमकी दी।  उन्होंने उसकी ताकत आजमाने को उससे एक बड़ी बल्ली (भराणे) उठाने को कहा।  उसने उठा दिया।  उन्होंने प्रपंच रचा।  मेला किया।  गुप्त रुप से हथियार एकत्र किये।  उसके बिल्ली-कुत्तों ने गुप्तचर का काम किया।  उसको सूचना दे दी।  मेले में कलविष्ट ने कहा कि वह पहाड़ी नाच दिखाएगा, उसने उस बड़ी बिल्ली को उठाकर चारों ओर घुमाया, और अपने दुश्मनों को ठंडा कर दिया।  तब वह चौरासी माल को गया।  कलविष्ट ने वहाँ के सब शेरों को जो ८४ की संख्या में थे मार डाला।  बड़े शार्दूल (गाजा केसर) को खनुवा लाखे ने मार डाला।

चौरसी से चलकर कलविष्ट पालीपछाऊँ दयाराम के यहाँ गया।  उसने कहा कि चौरासी तो अच्छी है, पर शेर बहुत हैं।  दयाराम ने पूछ-ताछ की, तो सब शेर मरे हुए पाए गये।  कलविष्य ने दयाराम को दगा करने के लिए श्राप दिया कि उसने छल करके उसे चौरासी माल भिजवाया था, पर वह बच गया।  अब यदि कपट से मारा जाएगा, तो वह भूत बनकर पालीपछाऊँ के लोगों को चिपटेगा।  इस समय कलविष्ट की पूजा पालीपछाऊँ में ज्यादा होती है।

फिर कलविष्ट कपड़खान में आया।  यहाँ काठघर में रहना शुरु किया।  वहाँ रात को 'दोष' एक प्रकार के भूत ने तंग किया।  भैंसो को दुहने न दिया।  रात भर कलविष्ट की 'दोष' से लड़ाई हुई।  'दोष' प्रात: काल हार गया।  कलविष्ट ने उससे वचन लिया कि वह किसी को तंग न करे, बल्कि भूले-भटके को रास्ता दिखाए।

जब अनेक प्रपंच करने पर भी वीर कलू कोटयूड़ी न मरा, तो श्री कृष्ण ने लखड़योड़ी नामक उसके साढ़ को बहकाया कि वह किसी तरह छल (चाला) करके उसे मारे।  लखड़योड़ी ने एक भैंस के पैर में कील ठोंक दी।  तब कलू कोटयूड़ी से मिलने गया।  कलू कोटयूड़ी ने आने का कारण पूछा, तो उसने कहा कि वह भैंस माँगने आया है।  इसने कहा कि जितने चाहिए लखड़योड़ी ले जावे।  पर लखड़योड़ी ने कहा कि भैंस के पै में क्या हो रहा है?  देखा, तो मेख ठुकी हुई थी।  कलू कोटयूड़ी ने दाँस से मेख निकालनी चाही, तो लखड़योड़ी ने खुकरी से कलू कोटयूड़ी के दोनों पैर काट दिए गये।  कोटयूड़ी ने भी लखड़योड़ी को मार डाला और श्राप दिया कि उसने दगाबाजी से मारा है, उसके खानदान में कोई नहीं रहेगा।

चौमू :
यह चौपायों की रक्षा तथा विनाश करने वाला छोटा ग्राम - देवता है।  इसका आदि स्थान स्यूनी तता द्वारसौं के बीच है। १५वीं शताब्दी के मध्य में एक ठा. रणबीर राना नाव देश्वर का लिंग लेकर चंपावत से अपने घर को आ रहे थे, जो कि रानीखेत के पास था।  किंरग राणा साहब की पगड़ी में बँधा था।  धारीघाट के पास उन्होंने पानी के निकट पगड़ी उतारी। हाथ-मुँह धोकर पगड़ी उठाने लगे, न उठी।  सभी लोग मिलकर कठिनाई से लिंग व पगड़ी को उठाकर एक बाँझ के पेड़ के खंडहर में रखा, ताकि उसा मंदिर बनाया जाए; पर लिंग उस जगह से असंतुष्ट होकर पहाड़ के ऊपर दूसरे पेड़ पर चला गया।  पहला पेड़ स्यूनी गाँव में था।  दुसरा स्यूनी-द्वारसौ की सरहद पर था।  अत: दोनों गाँव के लोगों ने मिलकर वह मंदिर बनाया और इसकी भेंट के हकदार भी दोनों गाँव हैं।  अल्मोड़ा के राजा रत्नचंद ने यह बात सुनी और वे लिंग के दर्शन को जाने को थे कि अच्छा मुहूर्त न मिला। तब सपने में चौमू ने राजा से कहा - मैं राजा हूँ, तू नहीं है। तू मेरी क्या पूजा करेगा!

चौमू के मंदिर में सैकड़ों घंटे चढ़ाये जाते हैं।  असोज व चैत्र की नवरात्रियों में सैकड़ों दीपक जलाये जाते हैं, और बड़ी पूजा होती है।  लिंग में दूध डाला जाता है।  बकरियाँ मारी जाती हैं।  उनके सिर (मुनी) स्यूनी व द्वारसौके लोग आपस मे बाँट लेते हैं।  चौमू के दरबार में कसमें ली जाती हैं।  अब कलिकाल में पुराना चमत्कार तो नहीं रहा, तथापि जिनकी गायें या डांगर खो जाते हैं, वे चौमू की पूजा देने पर उन्हें पा जाते हैं।  जिनकी गाय व भैंसे गाबिन हैं, वे चौमू की अराधन कर जीते बच्चे गाय-भैंस के हासिल करते हैं।  जो बुरा दूध चौमू को चढ़ाते हैं, उनके डंगर मर जाते हैं।  जो नहीं चढ़ाते या लिंग पूजा नहीं करते, उनके दूध का दही नहीं जमता (चुपड़ा नहीं होता) बछेड़ा होने पर १० दिन तक गाय का दूध चौमू पर चढ़ाना मना है।  शाम को बी गाय का दूध चढ़ाना वर्जित है।  जिन्होंने ऐसा दूध चढ़ाया है, उनकी गायें मर गयी हैं, उनके गायों के खूंटों की पूजा चौमू की तरह करनी चाहिए, अन्यथा डंगरों की हानि होगी।  स्यूनी द्वारसौं से गाय खरीदने वालों को चौमू की पूजा अनिवार्य है।  जो गाय चौमू को चढ़ाई हो, उसका दूध शाम को नहीं पिया जाता, पर और देवताओं को चढ़ाई हुई गायों का दूध पिया जा सकता है।

बधाणा :
चौमू की तरह यह भी गायों का देवता है।  वह किसी को चिपटता नहीं और न पूजने पर सताता है।   गाय के बच्चा होने के ११वें दिन उसका पूजन होता है।  पहले जल से उसकी मूर्ति साफ की जात है, फिर दूध चढ़ाया जाता है तब भात, पूरी, प्रसाद व दूध नैवेद्ध लगाया जाता है।  तभी गाय का दूध पिया जाता है।  यहाँ बलिदान नहीं होता।

हरु :
एक अच्छी प्रकृति का देवता है, और कुमाऊँ के ग्रामों में बहुत पूजा जाता है।  कहा जाता है कि वह चंपावत कुमाऊँ का राजा हरिशचन्द्र था।  वह राजा राजपाट छोड़ हरिद्वार में जाकर तपस्वी हो गया।  कहते हैं कि हरिद्वार में हर की पौड़ी उसी ने बनाई।  हरिद्वार से कहा जाता है कि उसने चारों धामों (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामनाथ, द्वारिकानाथ) की परिक्रमा की।  चारों धामों से लौटकर चंपावत में राजा ने अपना जीवन धर्म-कर्म में ही बिताया, और अपना एक भ्रातृमंडल कायम किया।  उसके भाई लाटू तथा उनके नौकर स्यूरा, त्यूरा, रुढ़ा कठायत, खोलिया, मेलिया, मंगिलाया और उजलिया सब उनके शिष्य हो गये।  सैम व बारु भी चेले बने।  राजा उनका गुरु हो गया।

पूर्णागिरी मेला


नैनीताल जनपद के पड़ोस में और पिथौरागढ़ जनपद में अवस्थित पूर्णागिरी का मंदिर अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर है । कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था । प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं । यह स्थान टनकपुर से मात्र १७ कि.मी. की दूरी पर है । अन्तिम १७ कि.मी. का रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं ।

लेकिन शरद् ॠतु की नवरात्रियों के स्थान पर मेले का आनंद चैत्र की नवरात्रियों में ही अधिक लिया जा सकता है क्योंकि वीरान रास्ता व इसमें पड़ने वाले छोटे-छोटे गधेरे मार्ग की जगह-जगह दुरुह बना देते हैं । चैत्र की नवरात्रियों में लाखों की संख्या में भक्त अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते हैं । अपूर्व भीड़ के कारण यहाँ दर्शनार्थियों का ऐसा ताँता लगता है कि दर्शन करने के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है । मेला बैसाख माह के अन्त तक चलता है ।

ऊँची चोटी पर गाढ़े गये त्रिशुल आदि ही शक्ति के उस स्थान को इंगित करते हैं जहाँ सती का नाभि प्रवेश गिरा था ।

पूर्णगिरी क्षेत्र की महिमा और उसके सौन्दर्य से एटकिन्सन भी बहुत अधिक प्रभावित था उसने लिखा है -

"पूर्णागिरी के मनोरम दृष्यों की विविधता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की महिमा अवर्णनीय है, प्रकृति ने जिस सर्व व्यापी वर सम्पदा के अधिर्वक्य में इस पर्वत शिखर पर स्वयं को अभिव्यक्त किया है, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका का कोई भी क्षेत्र शायद ही इसकी समता कर सके किन्तु केवल मान्यता व आस्था के बल पर ही लोग इस दुर्गम घने जंगल में अपना पथ आलोकित कर सके हैं ।"

यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है, नेपाल इसके बगल में है । जिस चोटी पर सती का नाभि प्रदेश गिरा था उस क्षेत्र के वृक्ष नहीं काटे जाते । टनकपुर के बाद ठुलीगाढ़ तक बस से तथा उसके बाद घासी की चढ़ाई चढ़ने के उपरान्त ही दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं । रास्ता अत्यन्त दुरुह और खतरनाक है । क्षणिक लापरवाही अनन्त गहराई में धकेलकर जीवन समाप्त कर सकती है । नीचे काली नदी का कल-कल करता रौख स्थान की दुरुहता से हृदय में कम्पन पैदा कर देता है । रास्ते में टुन्नास नामक स्थान पर देवराज इन्द्र ने तपस्या की, ऐसी भी जनश्रुती है ।

मेले के लिए विशेष बसों की व्यवस्था की जाती है जो टनकपुर से ठुलीगाढ़ तक निसपद पहुँचा देती है । भैरव पहाड़ और रामबाड़ा जैसे रमणीक स्थलों से गुजरने के बाद पैदल यात्री अपने विश्राम स्थल टुन्नास पर पहुँचते हैं जहाँ भोजन पानी इत्यादि की व्यवस्थायों हैं । यहाँ के बाद बाँस की चढ़ाई प्रारम्भ होती है जो अब सीढियाँ बनने तथा लोहे के पाइप लगने से सुगम हो गयी है । मार्ग में पड़ने वाले सिद्ध बाबा मंदिर के दर्शन जरुरी हैं ।
रास्ते में चाय इत्यादि के खोमचे मेले के दिनों में लग जाते हैं । नागा साधु भी स्थान-स्थान पर डेरा जमाये मिलते हैं । झूठा मंदिर के नाम से ताँबे का एक विशाल मंदिर भी मार्ग में कोतूहल पैदा करता है ।

प्राचीन बह्मादेवी मंदिर, भीम द्वारा रोपित चीड़ वृक्ष, पांडव रसोई आदि भी नजदीक ही हैं । ठूलीगाड़ पूर्णागिरी यात्रा का पहला पड़ाव है ।

झूठे मंदिर से कुछ आगे चलकर काली देवी तथा महाकाल भैंरों वाला का प्राचीन स्थान है जिसकी स्थापना पूर्व कूमार्ंचल नरेश राजा ज्ञानचंद के विद्वान दरबारी पंडित चंद्र त्रिपाठी ने की थी । मंदिर की पूजा का कार्य बिल्हागाँव के बल्हेडिया तथा तिहारी गाँव के त्रिपाठी सम्भालते हैं ।

वास्तव में पूर्णागिरी की यात्रा अपूर्व आस्था और रमणीक सौन्दर्य के कारण ही बार-बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों को भी इस ओर आने को उत्साहित सा करती है । इस नैसर्गिक सौन्दर्य को जो एक बार देश लेता है वह अविस्मरणीय आनंद से विभोर होकर ही वापस जाता है । कुमाऊँ क्षेत्र के कुमैंये, पूरब निवासी पुरबिये, थरुवाट के थारु, नेपाल के गौरखे, गाँव शहर के दंभ छोड़े निष्कपट यात्रा करने वाले श्रद्धालु मेले की आभी को चतुर्दिक फैलायो रहते हैं ।

बगवाल : देवीधुरा मेला



देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।

इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।

बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों� पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं ।

बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है । बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।


पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।


द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं । इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है । मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है । फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं ।

दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । फर्रों� की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है ।

बगवाल का समापन शंखनाद से होता है । तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं । मंदिर में अर्चन चलता है ।

कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा । बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है ।

रात्रि में मंदिर जागरण होता है । श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है । कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं ।

वैसे देवीधुरा का वैसर्गिक सौन्दर्य भी मोहित करने वाला है, इसीलिए भी बगवाल को देखने दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहँचते हैं ।

Thursday, December 27, 2012

Temples Near Champawat

POORNAGIRI TEMPLE:-One of the 108 Siddha Peeths, this Devi Temple is 21 kms from Tanakpur, Tunyas is 17 kms and from there 3 km trek leads to Purnagiri Temple. Tanakpur is linked by direct bus service with Lucknow, Delhi, Agra, Dehradun, Kanpur and other Districts.
According to an ancient legend, Daksha Prajapati organised a sacrificial ceremony, for which he invited everybody except Lord Shiva. Parvati on discovering that it was her father's trick to humiliate her husband immolated herself in the sacrificial fire. While her husband carried her body, the places where the parts of her body fell were recognized as Shakti Peeth. The Shakti Peeth holds the prime position among Malikagiri, Kalikagiri, and Himlagiri Peeths.

During Navratras, in the Chaitra month of the Indian calendar, devotees in large number come here to have their wishes fulfilled. After worshipping Mata Purnagiri, people also pay their tributes to her loyal devotee Bada Sidth Nath at Brahmadev and Mahendra Nagar in Nepal.
BALESHWARE TEMPLE
Baleshwar is the most artistic temple of the district. There are evidences to the effect that the group of temples dedicated to Baleshwar, Ratneshwar and Champawati Durga had been built by the early kings of the Chand dynasty. The temple once had intricate structural features and a sanctuary with a 'mandap'. The intricate carvings still visible on the ceilings of these temples are an evidence of their ancient glory and artistic excellence.
GWAL DEVTA TEMPLE
A deity of widespread faith and influence, Gwal Devta also known as Goril or Goll, is considered to be the presiding deity of justice. It is believed that when approached, Gwal Devta dispenses justice to a helpless victim of injustice and cruelty. Historically, Goril a Katyuric prince of Champawat, known for his unwavering justice and fair play, was himself a victim of planned conspiracy hatched up by his step mother, who had him thrown into a river, locked up in an iron cage. Held in high esteem as a symbol of justice, a temple was constructed in his honour after his demise at Golchaurh in Champawat. Ever since, he has grown into a deity of great influence. The temples attracts innumerable pilgrims round the year.


DEVIDHURA
At a distance of 45 kms. from Lohaghat, Devidhura is famous for its Barahi temple where the traditional Bagwal (fair) is held once every year on the festival of Raksha Bandhan.
KRANTESHWAR MAHADEV:-.
To the east of Champawat, the temple dedicated to Kranteshwar Mahadev is situated on the top of a lofty hill. It is also called Kurmapad and Kandev

Saturday, December 22, 2012

Uttarayana Festival


Uttarāyaṇa (उत्तरायण), or Uttarayana, is the six-month period between Winter solstice (around December 22) andSummer solstice (around June 21), when the sun apparently travels towards the north on the celestial sphere. But it is common to erroneously refer it to as the period between the Makar Sankranti (which currently occurs around January 14) and Karka Sankranti (which currently occurs around July 18). The name Uttarayana comes from joining two different Sanskrit words "Uttara" (North) and "ayana" (movement towards). The period from June 21 to December 22 is known is Dakshināyana (दक्षिणायण).
Drik Siddhanta and Uttarayana
This festival is currently celebrated on 14 or 15 January but due to axial precession of the earth it will continue to shift away from the actual season. The season occurs based on tropical sun (without ayanamsha). The earth revolves around sun with a tilt of 23.45 degrees. When the tilt is facing the sun we get summer and when the tilt is away from the sun we get winter. That is the reason when there is summer north of the equator, it will be winter south of the equator. Because of this tilt it appears that the sun travels north and south of the equator. This motion of the sun going from south to north is called Uttarayana – the sun is moving towards north and when it reaches north it starts moving south and it is called Dakshinayana – the sun is moving towards south. This causes seasons which are dependent on equinoxes and solstices.
There is a common misconception that Makara Sankranti is the Uttarayana. This is because at one point in time Sayana and Nirayana zodiac were the same. Every year equinoxes slide by 50 seconds due to precession of equinoxes, giving birth to Ayanamsha and causing Makar Sankranti to slide further. As a result if you think Makar Sankranti is Uttarayana then as it is sliding, it will come in June after 9000 years. However Makar Sankranti still holds importance in Hindu rituals. All Drika Panchanga makers like mypanchang.com, datepanchang, janmabhumi panchang, rashtriya panchang  and Vishuddha Siddhanta Panjika use the position of the tropical sun to determine Uttarayana and Dakshinayana.
Also when Uttarayana starts, it is a start of winter. When equinox slides it will increase ayanamsha and Makar Sankranti will also slide. In 1000 AD, Makar Sankranti was on Dec 31 and now it falls on January 14; after 9000 years when Makara Sankranti will be in June. It would seem absurd to have Uttarayana in June when sun is about to begin its ascent upwards —Dakshinayana. This misconception continues as there is not much difference between actual Uttarayana date of Dec 21 and January 14. However, the difference will be significant as equinoxes slide further.
Uttarayana in Hindu Mythology
Uttarayana is referred to as the day of new good healthy wealthy beginning.
According to Kauravas and Pandavas, in Mahabharata on this day Bheeshma Pitamaha, chose to leave for his heavenly abode. As per a boon granted to Devavratha (Bheeshma), he could choose his time of death and he chose this day, when the sun starts on its course towards the northern hemisphere.
Kite Fighting on Uttarayana
Materials
In most traditional fighter kite manufacture, the skins of kites are made from a lightweight thin paper and the spars are usually made from a lightweight and flexible wood, usuallybamboo.

In modern American fighters, the kite skins are made from a variety of synthetic materials – mylar, aircraft insulation (orcon or insulfab), nylon, and polyester sheeting. The spine may still be bamboo, but often along with the bow is constructed of fiberglass or carbon fiber.
Line
Historically, for most Asian type fighters, a thin cotton or hemp line is coated with a mixture of finely crushed glass and rice glue. In recent years, synthetic line has been coated with a variety of abrasives and stronger glue. Also, there have been some reports of metallic line being used. Some cultures use line that has metal knives attached to hook and cut the opponent's line.
Traditionally, players use a paste of some sort to toughen their line. The primary components of this include glue and crushed glass, but depending on personal preference other materials are added to improve the properties of the line.
In line touch competition, synthetic braided fishing line, 15 to 20 lb test, is used due to its low stretch and high strength for the line diameter and weight. Waxed cotton, linen line or Latex can also be used.
Names
Spectra - A brand of fishing line used for American Kite fighting.
Power Pro - A very thin [0.25 mm diameter] braided fishing line used for American Kite Fighting.
Manjha - Cutting line used in India and Pakistan.
Tar - Cutting line used in Afghanistan.
Hilo de competencia o Hilo Curado - Cutting line used in Chile.
Dor - (India and Pakistan) The string used to fly the kite. The sharper the string, the better it is.
Pench - When two or more kites are fighting to cut one another. (India)
Bridle and tuning
Bridle position, spine curve, center of gravity, and balance of tension on the spars all play a role in how the kite spins and tracks. Afghan and Indian fighter kites and their variants have their bridles attached in two places on the kites spine. The first place is at the crossing of the bow and the spine. The second attachment is three quarters to two thirds of the total length of the spine from the nose of the kite. The length of the top line to the tow point is the length between the two bridle to spine connection points. The length of the bottom bridle to the tow point is between half an inch to two inches (1.2-5 cm) longer than the length of the two spine connections. The spine of the kite has a slight convex curve toward the face of the kite. To make the kite spin more, the upper bridle line is shortened: to make the kite spin less, the lower bridle line is shortened . Left and right tracking are adjusted by either placing weight on the tip of a wing, or by weakening the bow on the side that you want the kite to track towards. The design of the kite plays a role in the tendency for the kite to spin and pull, and how much wind the kite can handle. Bridling and tuning are only effective when the kite chosen is able to handle the amount of wind that it is being flown in. If the wind is so strong that the spine and bow are severely distorted, no amount of bridle tuning will help with making the kite controllable. A crude method of making a kite flyable in over-strong wind, used in India where the kites are cheap and regarded as disposable, is to burn small holes in the flying surface, typically using a cigarette.
Kite fighting
When the kite is flown with the line taut, the kite is deformed by the wind pressure, giving it a degree of stability. When the line tension is reduced, either by letting out more line or by the flyer moving into wind, the kite will begin to become unstable and begin to rock from side to side, or in extreme cases even spin. By reapplying tension at the right moment, the kite will move in the direction that the flyer requires.
Although a spool that allows rapid winding and release of line is used, often the flyer will fly the kite by holding the line itself, with one or more assistants to help manage the slack line between the flyer and the spool. 

India
Fighter kites are known as patang in India. In many others, kite flying takes place mainly during specific festivals particularly the spring festival known as Basant, during Makar Sankranti and more recently on Indian Independence Day. 
Accidents
In India, Pakistan, and Chile, there have been reported accidents involving the abrasive coated cutting line. These accidents range in severity from small cuts on the fighter's fingers to a few reported deaths from contact with the line while riding motorcycles. In recent years, the fighting lines have evolved from the traditional cotton, rice and glass line to nylon or synthetic line coated with metallic or chemical abrasive compounds. To prevent further injury, many countries have implemented restrictions or bans on the use of cutting line. Some have set limits on the materials used to make the line, others have mandated safety devices on motorcycles when riding during kite festivals. People have been injured while fixated on capturing a cut kite. Other injuries have been due to not paying attention to ones actions while watching battles. Most of these accidents are preventable when fighting is strictly controlled to a specific arena and proper safety gear is worn by the fighters. Other accidents have occurred due to the masses of people present during large kite festivals to which kite fighting has taken the blame.
Environmental and safety concerns
The kite strings left around after the fight can become stuck in tall trees and can stay there for many years, impacting the natural aesthetic of parks and wilderness areas, thus degrading the experience of other park users from the trash that is left about.
Dogs have also been known to get trapped and injured on kite lines that have fallen closer to the ground.
Line cutting contests
Many of these kites are flown with an abrasive coated line (manja). Most kites are flown with a set length of manja at the kite end. The manja is very sharp and to avoid getting hand injuries most competitors use ordinary string (saddi) for their hand position. Some cutting involves knives of some sort attached to the tail, line, or kite. Competition rules vary by geographical area. Two or more contestants fly their kites. The person who cuts the opponents line wins the fight. In multiple kite matches, the person with the last kite in the air is the winner.
The two most common types of cutting are done with abrasive coated line - release cutting or pull cutting. To release cut, once the lines are in contact, both parties start to play out line until one line is cut. In pull cutting, the flier quickly retrieves line until the opponents line is cut. There are many factors in who will win the event and include the size of the kite, the quality of the kite, the quality of the line, the quality of the abrasive on the line, the quality and size of the spool, the spool handler, initial contact, the skill of the person flying the kite, and the wind conditions.
Capture or grounding competition
Two or more kites are flown. Competitors try to capture their opponents kite and bring it to the ground. The person or team who succeeds is the winner.
Expert kite fighters are able to cut their opponents line (manjha) and then encircle the trailing line (lubjow) of the cut kite. Once secured, the winner can then fly both kites and pull in the prize. Those not involved in the kite flying can be "kite runners" (Once a kite is cut, it no longer belongs to anyone until caught and claimed by the kite runner.). Many children die every year when they run into the path of vehicles or fall off roofs or, occasionally, with the fiber glass string cutting the flier's fingers or neck. The glass on the string is said to give the kite "cutting teeth".
Types
Lokta Changa (Nepal)
Indian Fighter Kite (India) (also known as a Patang)
Pakistani Fighter Kite (Pakistan) (also known as a Patang)
Tukkal (Pakistan and India)
Hata (Japan)
Rokkaku (Japan)
Afghan Fighter Kite (Afghanistan)
Shield Kite (Korea)
Chula and Pakpao (Thailand)
Wau (Malaysia)
American Fighter Kite (United States and Canada)
Brazilian Fighter Kite (Brazil)
Volantines (Chile)