भगवान राम की कथा पर आधारित रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भारत में युगों से चली आयी है। लोक नाट्य के रुप में प्रचलित इस रामलीला का देश के विविध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों से मंचन किया जाता है। उत्तराखण्ड खासकर कुमायूं अंचल में रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। वस्तुतः पूर्व में यहां की रामलीला विशुद्व मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे। पूर्व में तब आज के समान सुविधाएं न के बराबर थीं स्थानीय बुजुर्ग लोगों के अनुसार उस समय की रामलीला मशाल, लालटेन व पैट्रोमैक्स की रोशनी में मंचित की जाती थी। कुमायूं में रामलीला नाटक के मंचन की शुरुआत अठारहवीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। बताया जाता है कि कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व० देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमशः 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं० उदय शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में नवीनता लाने का प्रयास किया। हांलाकि पं० उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला यहां की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में भिन्न थी लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर अवश्य पड़ी।
कुमायूं की रामलीला में बोले जाने वाले सम्वादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखायी देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। सम्वादों में आकर्षण व प्रभावोत्पादकता लाने के लिये कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। कुमायूं की रामलीला में सम्वादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमायूंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रुपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती गूंज में पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादो में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक तरजीह दी जाती है। रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खडे़ होकर हाव- भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं। नाटक मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उदघोषणा भी की जाती है। रामलीला प्रारम्भ होने के पूर्व सामूहिक स्वर में रामवन्दना “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन“ का गायन किया जाता है। नाटक मंचन में दृश्य परिवर्तन के दौरान जो समय खाली रहता है उसमें विदूशक (जोकर) अपने हास्य गीतों व अभिनय से रामलीला के दर्शकों का मनोरंजन भी करता है। कुमायूं की रामलीला की एक अन्य खास विशेषता यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। आधुनिक बदलाव में अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन, नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है।
कुमाऊ अंचल में रामलीला मंचन की तैयारियां एक दो माह पूर्व (अधिकांशतः जन्माष्टमी के दिन) से होनी शुरु हो जाती हैं। तालीम मास्टर द्वारा सम्वाद, अभिनय, गायन व नृत्य का अभ्यास कराया जाता है। लकड़ी के खम्भों व तख्तों से रामलीला का मंच तैयार किया जाता है। कुछ स्थानों पर तो अब रामलीला के स्थायी मंच भी बन गये हैं। शारदीय नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन प्रारम्भ हो जाता है, जो दशहरे अथवा उसके एक दो दिन बाद तक चलता है। इस दौरान राम जन्म से लेकर रामजी के राजतिलक तक उनकी विविध लीलाओं का मंचन किया जाता है। कुमायूं अंचल की रामलीला में सीता स्वयंवर,परशुराम-लक्ष्मण संवाद, दशरथ-कैकयी संवाद, सुमन्त का राम से आग्रह, सीताहरण, लक्ष्मण शक्ति, अंगद-रावण संवाद, मन्दोदरी-रावण संवाद व राम-रावण युद्ध के प्रसंग मुख्य आर्कषण होते हैं। इस सम्पूर्ण रामलीला नाटक में तकरीबन साठ से अधिक पात्रों द्वारा अभिनय किया जाता है। कुमायूं की रामलीला में राम, रावण, हनुमान व दशरथ के अलावा अन्य पात्रों में परशुराम, सुमन्त, सूपर्णखा, जटायु, निशादराज, अंगद, शबरी, मन्थरा व मेघनाथ के अभिनय देखने लायक होते हैं। यहां की रामलीला में प्रयुक्त परदे, वस्त्र, श्रृंगार सामग्री व आभषूण प्रायः मथुरा शैली के होते हैं। नगरीय क्षेत्रों की रामलीला को आकर्षक बनाने में नवीनतम तकनीक, साजसज्जा, रोशनी,व ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग होने लगा है।
कुमायूं अंचल में रामलीला का मंचन अधिकांशतः शारदीय नवरात्र में किया जाता है, लेकिन जाड़े अथवा खेती के काम की अधिकता के कारण कहीं-कहीं गर्मियों व दीपावली के आसपास भी रामलीला का मंचन किया जाता है। 14 वर्ष तक लगातार रामलीला मंचन होने के बाद १४ वें साल में लव-कुश काण्ड का मंचन भी किये जाने की परम्परा इस अंचल में है। कुमायूं अंचल में रामलीला मंचन की यह परम्परा अल्मोड़ा से विकसित होकर बाद में आस-पास के अनेक स्थानों में चलन में आयी। शुरुआती दौर में चम्पावत, नैनीताल, पिथौरागढ, लोहाघाट, बागेश्वर, रानीखेत, भवाली, भीमताल, रामनगर हल्द्वानी मे सुरू हुई. पिछले कुछ वर्षो से काशीपुर के अलावा खटीमा, सितारगंज समेत आस पास कई सहरो मे भी पहाड़ी प्रवासियों द्वारा रामलीलाओ का आयोजन किया जा रहा है. उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा में आज भी तकरीबन आठ-दस मुहल्लों में बड़े उत्साह के साथ रामलीलाओं का आयोजन किया जाता है, जिनमें स्थानीय गांवों व नगर की जनता देर रात तक रामलीला का भरपूर आनन्द उठाती हैं। अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण कुछ अलग ही होता है। दशहरे के दिन नगर में रावण परिवार के डेढ़ दर्जन के करीब आकर्षक पुतलों को पूरे बाजार में घुमाया जाता है। इन पुतलों को देखने के लिये नगर में भारी भीड़ एकत्रित होती है।
कुमायूं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में पूर्व में जहां स्व० पं० रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद, स्व० बद्रीदत्त जोशी, स्व० कुन्दनलान साह, स्व० नन्दकिशोर जोशी, स्व० बांकेलाल साह, व स्व० ब्रजेन्द्रलाल साह सहित कई दिवंगत व्यक्तियों व कलाकारों का योगदान रहा, स्व० ब्रजेन्द्र लाल शाह जी ने रामलीला को आंचलिक बनाने के उद्देश्य से कुमांऊनी तथा गढ़वाली बोली में भी रामलीला को रुपान्तरित किया था।वहीं वर्तमान में लक्ष्मी भंडार( हुक्का क्लब) के श्री शिवचरण पाण्डे और उनके सहयोगी तथा हल्द्वानी के डॉ० पंकज उप्रेती सहित तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकार यहां की समृद्ध एवं परम्परागत रामलीला को सहेजने और संवारने के कार्य में लगे हुए हैं। वर्तमान में उत्तराखण्ड के लगभग हर गांव में रामलीलाओं का मंचन किया जाता है, जिनमें उत्तराखण्ड की इस समृद्ध परम्परा को सहेजने का प्रयास जारी है।
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