Thursday, February 14, 2013

खड़ी होली गीत बैठकी


खड़ी होली या गीत बैठकी उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में होली के अवसर पर आयोजित की जाती हैं। यहाँ नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं। इस रंग में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बरसाने की लठमार होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। वसंत के आगमन पर हर ओर खिले फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम दर्शनीय होता है। शाम के समय कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है। गीत बैठकी में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ सुनने को मिलती हैं। गीत बैठकी में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है। होली की ये परंपरा मात्र संगीत सम्मेलन नहीं बल्कि एक संस्कार भी है। ये बैठकें आशीर्वाद के साथ संपूर्ण होती हैं जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी...या ऐसी होली खेले जनाब अली...जैसी ठुमरियाँ गई जाती हैं। गीत बैठकी की महिला महफ़िलें भी होती हैं। पुरूष महफिलों में जहाँ ठुमरी और ख़याल गाए जाते हैं वहीं महिलाओं की महफिलों का रुझान लोक गीतों की ओर होता है। इनमें नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं। देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े गी तो होते ही हैं राजनीति और प्रशासन पर व्यंग्य भी होता है। होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है।”

इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने होली बैठकी के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है। वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है। राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियाँ यहाँ ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहाँ के रीति रिवाज भी साथ लाईं। ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं। यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ पाए जाते हैं।

कुमाऊँ चाँचरी,छोलिया नृत्य


कुमाऊँ का नृत्य गीत- चाँचरी
चाँचरी – चाँचरी अथवा चाँचुरी कुमाऊँ का समवेत नृत्यगीत है । इस नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें वेश-भूषा की चमक-दमक अधिक रहती है । दर्शकों की आँखे नृतकों पर टिकी रहती है । ‘चाँचरी’ और झोड़ा नृत्य देखने में एक सा लगता है परन्तु दोनों की शैलियों में अन्तर है । चाँचरी में पद-संचालन धीरे-धीरे होता है । धुनों का खिंचाव दीर्ध होता है । गीतों के स्वरों का आरोह और अवरोह भी लम्बाई लिये होता है । नाचने में भी लचक अधिक होती है । ‘चाँचरी’ नृत्य गीतों की विषय-वस्तु भी झोड़ों की तरह धार्मिक, श्रंगार एवं प्रेम-परक भावों से ओत-प्रोत रहती है । दानपुर का ‘चाँचरी’ कुमाऊँ की धरती का आकर्षक नृत्य माना जाता है 

कुमाऊँ का लोक नृत्य: छोलिया
विभिन्न अंचलों के अपने-अपने लोकनृत्य होते हैं। कुमाऊँ का लोकनृत्य छोलिया नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य को करने वालों को छोल्यार कहा जाता है। यह नृत्य प्रायः पुरुषों द्वारा किया जाता है। यह नृत्य यहाँ श्रृंगार व वीर रस दो रूपों में देखने को मिलता है। कुमाऊँ के पाली पछाऊँ में प्रचलित छोलिया नृत्य नगाड़े की थाप पर होता है। सफेद चूड़ीदार पजामा और लम्बा चोला, सिर पर सफेद पगड़ी आदि पारम्परिक परिधान अब नहीं पहने जाते अलबत्ता सफेद कपड़े अभी भी छोल्यार पहनते हैं। छोल्यारों के पास लंबी-लंबी तलवारें होती हैं। हाथ में होता है गेंडे की खाल से बना बड़ा ढाल। नगाड़े की थाप पर छोल्यार खूब थिरकते हैं। युद्ध की कला स्पष्ट होती है। एक दूसरे पर तलवार से वार और बचाव। इस युद्ध को नृत्य युद्ध या शस्त्र युद्ध भी कहा जा सकता है। स्थानीय भाषा में इस युद्ध को ‘सरकार’ कहा जाता है।


ढाल-तलवार के इस युद्ध में छोल्यार अपने हाव-भाव से एक दूसरे को छेड़ने, चिढ़ाने, उकसाने के साथ ही भय व खुशी के भाव आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। इस नृत्य में गायन नहीं होता अपितु नगाड़े की थाप पर कभी धीरे-धीरे तो कभी-कभी तेज गति से यह नृत्य होता है। यह नृत्य राजाओं का नृत्य है जो वीर रस का प्रतीक है।

इस नृत्य में नगाड़ा, दमुवा, रणसिंग व भेरी बजाने वाले होते हैं जो कि पारम्परिक रूप से इस व्यवसाय से जुड़े हैं, दूसरी ओर तलवार और ढाल से छोलिया नृत्य करने वाले छोल्यार अपनी दूसरी आजीविका में व्यस्त रहते हैं। मेले व विवाह समारोहों में तो अब इसका प्रचलन कम ही हो गया है। अब बजाने वाले जानकार भी कम होते जा रहे हैं। अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ व चंपावत में छोलिया नृत्य ढोल व दमुवे की थाप पर होता है। यहाँ के छोलिया नृतक रंग-विरंगे परिधान में रहते हैं। यहाँ ढोल बजाने वाला भी आकर्षक कपड़े पहनता है। वह ऊपर-नीचे विभिन्न मुद्राओं में ढोल के साथ नृत्य करता है। छोलिया नृत्य करने वाले कलाकारों के हाथ में छोटी तलवार व कांसे की ढाल होती हैं। बताया जाता है कि यह नृत्य चंद राजाओं के समय से यहाँ प्रारम्भ हुआ। पहले यह राजा सोमचंद के विवाह अवसर पर हुआ। आज यह नृत्य काफी प्रचलन में है। बैंड बाजे के वर्तमान दौर में भी छोलिया टीम को लोग जरूर बुलाते हैं। 


झोड़ा
झोड़ा कुमाऊं का सामूहिक नृत्य-गीत है । गोल घेरे में एक दूसरे की कमर अथवा कन्धों में हाथ डाले सभी पुरुषों के मंद, सन्तुलित पद-संचालन से यह नृत्य गीत प्रारम्भ होता है । वृत के बीच में खड़ा हुड़का-वादक गीत की पहली पंक्ति को गाता हुआ नाचता है, जिसे सभी नर्तक दुहराते हैं, गीत गाते और नाचते हैं । झोडों में उत्सव या मेले से सम्बन्धित देवता विशेष की स्तुति भी नृत्यगीत भावनाएँ व्यंजित होती हैं । सामयिक झोड़ों में चारों ओर के जीवन-जगत पर प्रकाश डाला जाता है । ‘झोडे’ कई प्रकार के होते हैं । परन्तु मेलों में मुख्यत: प्रेम प्रधान झोडों की प्रमुखता रहती है ।

द्वादश ज्योर्तिलिंगों में एक जागेश्वर धाम


वैदिक काल से ही ऋषि-मुनियों की तपस्थली के रूप में विख्यात उत्तराखंड समृद्ध आध्यात्मिक संस्कृति का केंद्र रहा है। मध्य हिमालय का यह क्षेत्र जिस प्रकार अपने मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्वविख्यात है, उसी तरह इसका प्राचीन वैभव भी अत्यंत विशिष्टï एवं गौरवशाली रहा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘कुमाऊं’ में लिखा है- ‘मानसरोवर से लगा हिमालय का यह भाग भारत के लिए सांस्कृतिक, सांप्रतिक और प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टिï से महत्वपूर्ण है।’ उत्तराखंड में ऐसा कोई स्थान नहीं है जिसे सांस्कृतिक-धार्मिक धरोहर के रूप में देवत्व की संज्ञा न प्राप्त हो। सदियों से यहां के जनमानस में धार्मिक एकरसता की अभूतपूर्व धारा प्रवाहमान रही है। उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास का अमिट अध्याय रहे कत्यूर एवं चंदवंशीय राजाओं ने भी धर्म के प्रति अपनी अटूट आस्था व्यक्त करते हुए अनेक स्थानों पर ऐसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया जिनकी स्थापत्यकला सैकड़ों वर्ष बाद आज भी दर्शनीय है।
अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 35 किमी की दूरी पर जटा गंगा नदी के तट पर बसा जागेश्वर धाम उत्तराखंड के पौराणिक, धार्मिक व ऐतिहासिक स्थलों में एक है। देवदार व मोरपंखी के घने जंगल के बीच जागेश्वर में छोटे-बड़े 164 पुरातात्विक महत्व के मंदिरों का समूह है। 7वीं से 14वीं सदी के मध्य पाषाण शैली के इन भव्य देवालयों का निर्माण कत्यूर व चंदवंशीय राजाओं ने कराया था। मंदिरों की नक्काशी, स्थापत्यकला और द्वार सज्जा देखकर लगता है कि जागेश्वर मध्यकाल में वास्तुकला व मूर्तिकला का विशिष्टï केंद्र रहा होगा। द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक माने जाने वाले इस तीर्थ स्थल को कुमाऊं का काशी भी कहा जाता है।
शिवपुराण व श्रीमद्भागवत गीता में इस धाम का उल्लेख है। हिमालय से सौराष्ट्र तक बारह ज्योतिर्लिंगों की भगवान शिव द्वारा स्थापना का उल्लेख जिस अष्टïपदी श्लोक में किया गया है उसका चौथा पद जागेश्वर से संबंधित है-
‘सेतु बन्धे तू रामेश जगेश दारुका वने।’
स्कंदपुराण के अनुसार जागेश्वर धाम को ही नागेश (दारुकावन) ज्योतिर्लिंग कहा गया है जो यहां मुख्य मंदिर में स्थित है। जागेश्वर धाम में ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के संबंध में कथा प्रचलित है कि टंकण पर्वत से सप्त ऋषियों की पत्नियां यज्ञ के लिए जब कुश लेने गयीं तो वह समाधिस्थ भगवान शिव का मोहक रूप देखकर उन पर मोहित हो गईं। इस पर क्रोधित शिव ने उन्हें श्राप दे डाला। श्राप के निवारण के लिए ऋषियों ने तपस्या की और भगवान शिव ने लिंग रूप में दर्शन दिये।
आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य मगध से नेपाल होते हुए जागेश्वर, बैजनाथ, बद्रीनाथ तथा केदारनाथ गए थे। दारुकावन जागेश्वर में उन्होंने शक्तिपीठ की स्थापना की थी। तब जागेश्वर नेपाल-तिब्बत के महायान बौद्ध धर्म का तीर्थ था। इस बौद्ध धर्म को तिब्बत में बौन या पौन मत भी कहा जाता है। जागेश्वर में बौद्ध देवता पौन की स्थापना शैव-शक्ति पीठ के मंदिर से कुछ दूरी पर की गई थी। जागेश्वर की महत्ता शंकराचार्य के आगमन के उपरांत अगली दो शताब्दियों में इतनी अधिक थी कि मगध की ओर से अनेक यात्री इस मंदिर की यात्रा करते थे। चीनी यात्री ह्वïेनसांग ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में जागेश्वर का वर्णन किया है।
कुमाऊं के प्रमुख मंदिर पुंजों में छोटे मंदिर नागर शिखर वाले तथा बड़े कत्यूरी शिखर वाले हैं। इन सबमें प्राचीनता, विविधता, प्रतिमाओं की संख्या तथा स्थापत्य की विशिष्टïता की दृष्टिï से जागेश्वर का मंदिर समूह संपूर्ण उत्तराखंड में सर्वोपरि है। यह उत्तराखंडवासियों के आराध्य समस्त देवी-देवताओं की मूर्तियों के संग्रहालय जैसा है। मानसखंड में बार-बार इसका महात्म्य गाया गया है।
शिव के विभिन्न नाम रूपों- जागेश्वर, वृद्ध जागेश्वर, मांडेश्वर, मृत्युंजय, दंडेश्वर, गडोरेश्वर, केदार, बैजनाथ, वैद्यनाथ, झांकर सैम, भैरव, चक्रवाकेश्वर, नीलकंठ, बालेश्वर, विश्वेश्वर, बागेश्वर, मुक्तेश्वर-हूणेश्वर, कमलेश्वर, ब्रह्मïकपाल, क्षेत्रपाल सहित यहां पुष्टिïदेवी, चंडिका, लक्ष्मी, नारायणी, शीतला, महाकाली आदि मंदिर हैं। जागेश्वर के पश्चिमी

चाय की खेती के लिए उर्वर है उत्तराखंड की जमीन


एक जमाना था जब उत्तराखंड के कुमाऊं जंगलों में चाय के पौधे लावारिस रूप में उगते थे। खरपतवार के रूप में उगे इन चाय के पौधों का कोई उपयोग भी नहीं करता था। सन् 1823 में असम की धरती पर चाय के जंगली पौधों की खोज होने के बाद जब बिशप हेलर नामक सैलानी सन् 1824 में उत्तराखंड की यात्रा पर आया तो उन्होंने कुमांऊ के जंगलों में खड़े लावारिस चाय के पौधों को देखकर चाय की खेती की संभावना व्यक्त की। उन्होंने उत्तराखंड के भौगोलिक स्वरूप व जलवायु को चाय की खेती के अनुरूप मानते हुए लोगों को उत्तराखंड क्षेत्र में चाय की खेती की सलाह दी।
सहारनपुर के सरकारी बोटेनिकल गार्डन प्रमुख डा. रायले ने तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंग से पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड में चाय का उद्योग विकसित करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने का निवेदन किया। सन् 1834 में चाय उद्योग के लिए एक कमेटी गठित की गई और सन् 1835 में इस कमेटी के माध्यम से चाय की दो हजार पौध कोलकाता से मंगवाकर कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा क्षेत्र के भरतपुर में लाई गई जहां चाय की नर्सरी बनाकर चाय की खेती का विस्तार कुमाऊं के साथ-साथ गढ़वाल में भी किया गया। उन्नत खेती तकनीक एवं अनुकूल जलवायु के चलते चाय की खेती से पैदा हुई चाय की गुणवत्ता भी गज़ब की थी। तभी तो सन् 1842 में चाय विशेषज्ञों ने उत्तराखंड में पैदा हुई चाय को असम की चाय से भी श्रेष्ठï घोषित किया और इंगलैंड में भेजे गए उत्तराखंड के चाय के नमूनों को भी गुणवत्ता की दृष्टिï से श्रेष्टïतम माना गया था। इससे उत्साहित होकर सरकारी प्रोत्साहन के बलबूते उत्तराखंड की धरती पर सन् 1880 तक चाय की खेती का विस्तार 10937 एकड़ क्षेत्रफल तक पहुंच गया था जहां 63 चाय के बागानों के रूप में चाय की उन्नत खेती की गई। लेकिन उत्तराखंड में चाय का बाजार विकसित न होने, तत्कालीन समय में यातायात संसाधनों की कमी और चाय के निर्यात के लिए कोलकाता बंदरगाह पर ही निर्भर रहने के कारण उत्तराखंड की चाय को अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंचने में पसीने छूटे। भारी खर्च ट्रांसपोर्ट आदि  में आने के कारण बाजारी मूल्य प्रतिस्पर्धा में गुणवत्ता रूप में श्रेष्ठï होते हुए भी उत्तराखंड की चाय असम की चाय का मुकाबला नहीं कर सकी। परिणामस्वरूप उत्तराखंड में चाय का उद्योग समय के साथ विकसित होने के बजाय ध्वस्त होता चला गया। समय के क्रूर हाथों में उत्तराखंड में कभी रौनक रहे 63 चाय के बागान भी इससे छीन लिये जिस कारण अब उत्तराखंड में चाय की खेती नाममात्र को ही रह गई है। हालांकि आज भी खरपतवार रूप में ही सही लेकिन भीमताल, कौसानी, इनागिरी, बेरीनाग, रानीखेत, भवाली इत्यादि जंगलों में चाय के पौधे खड़े नजर आते हैं।

ज्योलिकोट नैनीताल


ज्योलिकोट
ज्योलिकोट उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में स्थित है। ज्योलिकोट की खुबसूरती पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करती है। यहां पर दिन के समय गर्मी और रात के समय ठंड पडती है। आसमान आमतौर पर साफ और रात तारों भरी होती है। कहा जाता है कि बहुत पहले श्री अरबिंदो और स्वामी विवेकानन्द भी यहां की यात्रा कर चुके हैं। पर्यटक यहां के गांवों के त्योहारों और उत्सवों का आनंद भी ले सकते हैं। यहां से कुछ ही दूरी पर कुमाऊं की झील, बिनसर, कौसानी, रानीखेत और कार्बेट नेशनल पार्क स्थित हैं। छोटी या एक दिन की यात्रा के लिए ज्योलिकोट सबसे आदर्श पर्यटन स्थल माना जाता है। ज्योलिकोट में अनेक पहाडियां हैं जो एक-दूसरे से जुडी हुई हैं। इन पहाडियों में अनेक गुप्त रास्ते हैं। ब्रिटिश राज के समय इन रास्तों का प्रयोग संदेशों के आदान-प्रदान के लिए किया जाता है। यहां पर अनेक हिल रिजार्ट भी हैं। इन रिजार्ट में ठहरने और पहाडों में घूमने के अलावा भी यहां पर करने के लिए बहुत कुछ है। ज्योलिकोट में भारत का सबसे पुराना 18 होल्स का गोल्फ कोर्स है। इसके अलावा नैनी झील और सत्तल में नौकायन का आनंद लिया जा सकता है। किलबरी में बर्फ की सुन्दर चोटियों को देखा जा सकता है। पंगोट, नोकचैतल और बिनसर में खूबसूरत पक्षियों को देखा जा सकता है। इन सब के अलावा कुमाऊं की पहाडियों में घूमना भी अच्छा विकल्प है।

प्रमुख आकर्षण
द कॉटेज
यह कॉटेज वगरेमाउंट एस्टेट का भाग है और आजादी मिलने तक यह होटल के रूप में प्रसिद्ध था। उस समय इस पर स्कॉटलैण्ड की एक महिला और उसकी बेटी का अधिकार था। इसके बाद भुवन कुमारी ने उनसे इस होटल को खरीद लिया और इसमें अनेक सुधार कर इसको एक जाना-माना कॉटेज बना दिया। यह कॉटेज पहाडियों से घिरा हुआ है। इस कॉटेज के निर्माण के समय इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि इसके आस-पास की प्राकृतिक सुन्दरता कम न हो। इस कॉटेज के पास लगभग आठ एकड के क्षेत्र में फलदार वृक्ष, खुशबूदार ङाडियो और फूलों के वृक्ष फैले हुए हैं। इसके अलावा यहां पर नाशपाती, आडु, और आलुबूखारा आदि फलों के वृक्ष बहुतायत में लगे हुए हैं। चांदनी रात में यहां की छटा देखने लायक होती है।
ज्योलिकोट पहाडियों से घिरा हुआ है और यहां पर अनेक छोटे-छोटे मन्दिर और मठ बने हुए हैं। यह सभी जंगलों में थोडी-थोडी दूरी पर स्थित है। यहां के प्रत्येक मंदिर और मठ के साथ बुर्रा साहिब की कहानियां जुडी हुई हैं। इन मंदिरों और मठों के अलावा यहां पर एक छोटा-सा बंगला भी है। कहा जाता है कि किसी समय यहां पर नेपोलियन बोनापार्ट की बेटी रहती थी, जो यहां रहने वाले एक स्थानीय लडके से प्यार करने लगी थी। बंगले के अलावा यहां पर वार्विक साहिब का घर भी है। वार्विक साहिब ब्रिटिश थल सेना के रिटायर्ड मेजर थे। यह जानना बडा ही दिलचस्प है की उनके मरने के बाद पता चला था कि वह एक महिला थी। स्थानीय लोग कहते हैं कि उनकी आत्मा आज भी इस घर में भटकती है।
पर्यटकों के पास ज्यादा समय नहीं है तो वह एक दिन की पिकनिक के लिए भी यहां आ सकते हैं। सरकार ने ज्योलिकोट में एक बागवानी केन्द्र भी बनाया है। पर्यटक अगर चाहें तो यहां से ताजा शहद और पौधे ले सकते हैं। इस केन्द्र से गाईडों को किराए पर भी ले सकते हैं।

निकटवर्ती स्थल
अगर पर्यटक बर्फ से ढकी चोटियों को देखना चाहते हैं तो वह पंगोट और किलबरी जा सकते हैं। जो नैनीताल की बाहरी सीमा के पास है। पंगोट और किलबरी जाते समय रास्ते में अनेक जगह आती हैं जहां रूककर विश्राम भी किया जा सकता है।
भुवाली
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 87 से भोवाली पहुंचा जा सकता है। कुमांऊ जाते समय अधिकतर पर्यटक यहीं पर रूकते हैं। भोवाली में पाइन के खूबसूरत जंगल है। यहां पर लंगूरों की संख्या भी काफी है। जो जंगलों से लेकर बाजार तक हर जगह दिख जाते हैं। भोवाली से एक रास्ता खरना तक जाता है। खरना से दो रास्ते जाते हैं, इनमें से एक रास्ता रानीखेत तक जाता है और दूसर रास्ते से पर्यटक अल्मोडा तक जा सकते है। खरना से थोडा आगे चलने पर रामगढ और मुक्तेश्वर पहुंचा जा सकता है। यहां से एक और रास्ता सत्तल, भीमतल और नोकचैतल तक जाता है। भोवाली में तपेदिक रोधी केन्द्र और वायु सेना का स्टेशन भी बनाया गया है। भोवाली का बाजार भी बहुत प्रसिद्ध है। इस बाजार की बाल मिठाई काफी प्रसिद् है।