वैदिक काल से ही ऋषि-मुनियों की तपस्थली के रूप में विख्यात उत्तराखंड समृद्ध आध्यात्मिक संस्कृति का केंद्र रहा है। मध्य हिमालय का यह क्षेत्र जिस प्रकार अपने मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्वविख्यात है, उसी तरह इसका प्राचीन वैभव भी अत्यंत विशिष्टï एवं गौरवशाली रहा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘कुमाऊं’ में लिखा है- ‘मानसरोवर से लगा हिमालय का यह भाग भारत के लिए सांस्कृतिक, सांप्रतिक और प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टिï से महत्वपूर्ण है।’ उत्तराखंड में ऐसा कोई स्थान नहीं है जिसे सांस्कृतिक-धार्मिक धरोहर के रूप में देवत्व की संज्ञा न प्राप्त हो। सदियों से यहां के जनमानस में धार्मिक एकरसता की अभूतपूर्व धारा प्रवाहमान रही है। उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास का अमिट अध्याय रहे कत्यूर एवं चंदवंशीय राजाओं ने भी धर्म के प्रति अपनी अटूट आस्था व्यक्त करते हुए अनेक स्थानों पर ऐसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया जिनकी स्थापत्यकला सैकड़ों वर्ष बाद आज भी दर्शनीय है।
अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 35 किमी की दूरी पर जटा गंगा नदी के तट पर बसा जागेश्वर धाम उत्तराखंड के पौराणिक, धार्मिक व ऐतिहासिक स्थलों में एक है। देवदार व मोरपंखी के घने जंगल के बीच जागेश्वर में छोटे-बड़े 164 पुरातात्विक महत्व के मंदिरों का समूह है। 7वीं से 14वीं सदी के मध्य पाषाण शैली के इन भव्य देवालयों का निर्माण कत्यूर व चंदवंशीय राजाओं ने कराया था। मंदिरों की नक्काशी, स्थापत्यकला और द्वार सज्जा देखकर लगता है कि जागेश्वर मध्यकाल में वास्तुकला व मूर्तिकला का विशिष्टï केंद्र रहा होगा। द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक माने जाने वाले इस तीर्थ स्थल को कुमाऊं का काशी भी कहा जाता है।
शिवपुराण व श्रीमद्भागवत गीता में इस धाम का उल्लेख है। हिमालय से सौराष्ट्र तक बारह ज्योतिर्लिंगों की भगवान शिव द्वारा स्थापना का उल्लेख जिस अष्टïपदी श्लोक में किया गया है उसका चौथा पद जागेश्वर से संबंधित है-
‘सेतु बन्धे तू रामेश जगेश दारुका वने।’
स्कंदपुराण के अनुसार जागेश्वर धाम को ही नागेश (दारुकावन) ज्योतिर्लिंग कहा गया है जो यहां मुख्य मंदिर में स्थित है। जागेश्वर धाम में ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के संबंध में कथा प्रचलित है कि टंकण पर्वत से सप्त ऋषियों की पत्नियां यज्ञ के लिए जब कुश लेने गयीं तो वह समाधिस्थ भगवान शिव का मोहक रूप देखकर उन पर मोहित हो गईं। इस पर क्रोधित शिव ने उन्हें श्राप दे डाला। श्राप के निवारण के लिए ऋषियों ने तपस्या की और भगवान शिव ने लिंग रूप में दर्शन दिये।
आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य मगध से नेपाल होते हुए जागेश्वर, बैजनाथ, बद्रीनाथ तथा केदारनाथ गए थे। दारुकावन जागेश्वर में उन्होंने शक्तिपीठ की स्थापना की थी। तब जागेश्वर नेपाल-तिब्बत के महायान बौद्ध धर्म का तीर्थ था। इस बौद्ध धर्म को तिब्बत में बौन या पौन मत भी कहा जाता है। जागेश्वर में बौद्ध देवता पौन की स्थापना शैव-शक्ति पीठ के मंदिर से कुछ दूरी पर की गई थी। जागेश्वर की महत्ता शंकराचार्य के आगमन के उपरांत अगली दो शताब्दियों में इतनी अधिक थी कि मगध की ओर से अनेक यात्री इस मंदिर की यात्रा करते थे। चीनी यात्री ह्वïेनसांग ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में जागेश्वर का वर्णन किया है।
कुमाऊं के प्रमुख मंदिर पुंजों में छोटे मंदिर नागर शिखर वाले तथा बड़े कत्यूरी शिखर वाले हैं। इन सबमें प्राचीनता, विविधता, प्रतिमाओं की संख्या तथा स्थापत्य की विशिष्टïता की दृष्टिï से जागेश्वर का मंदिर समूह संपूर्ण उत्तराखंड में सर्वोपरि है। यह उत्तराखंडवासियों के आराध्य समस्त देवी-देवताओं की मूर्तियों के संग्रहालय जैसा है। मानसखंड में बार-बार इसका महात्म्य गाया गया है।
शिव के विभिन्न नाम रूपों- जागेश्वर, वृद्ध जागेश्वर, मांडेश्वर, मृत्युंजय, दंडेश्वर, गडोरेश्वर, केदार, बैजनाथ, वैद्यनाथ, झांकर सैम, भैरव, चक्रवाकेश्वर, नीलकंठ, बालेश्वर, विश्वेश्वर, बागेश्वर, मुक्तेश्वर-हूणेश्वर, कमलेश्वर, ब्रह्मïकपाल, क्षेत्रपाल सहित यहां पुष्टिïदेवी, चंडिका, लक्ष्मी, नारायणी, शीतला, महाकाली आदि मंदिर हैं। जागेश्वर के पश्चिमी
भाग में दंडेश्वर, दक्षिणी भाग में झांकर सैम, उत्तरी भाग में वृद्ध जागेश्वर व जागनाथ जी हैं। दंडेश्वर को जागेश्वर के प्रवेशद्वार का प्रतीक भी माना जाता है। कहा जाता है कि आदिकाल में शिवजी ने जागेश्वर के वनों में कई वर्षों तक साधना की थी, उनके बैठने के स्थान पर ही कालांतर में दंडेश्वर मंदिर बनाया गया। यह स्थान जटागंगा, अरावती, अलकनंदा और शूलगंगा नदियों का संगम भी है। झांकर सैम रजियापाल के जंगल में प्राचीन देवदार के वृक्ष के नीचे विराजमान है। ऐसी मान्यता है कि जागनाथ जी की रक्षा के लिए उन्हें दक्षिण दिशा में स्थापित किया है क्योंकि इतिहास साक्षी है कि आसुरी शक्तियों ने हमेशा दक्षिण दिशा से ही अधिक आक्रमण किये हैं। इन मंदिरों में जागेश्वर, मृत्युंजय और दंडेश्वर के मंदिर सबसे बड़े एवं प्राचीन हैं। ये लगभग 50 फीट ऊंचे हैं। इनके गर्भगृह वर्गाकार हैं। इनकी दीवारों पर अन्य मूर्तियां नहीं हैं। भीतर शिवलिंग और देवी की मूर्तियां हैं। ऊपर कत्यूरी शैली के शिखर हैं।
ऐसी मान्यता है कि जागेश्वर के मंदिरों का निर्माण देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने किया था। महान विक्रमादित्य ने मृत्युंजय और दंडेश्वर मंदिर का तथा शालिवाहन ने जागेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार किया था। तदुपरांत शंकराचार्य ने उनका पुनर्संस्कार किया। मंदिरों में हुई टूट-फूट की मरम्मत कत्यूरी राजा किया करते थे। जागेश्वर में मृत्युंजय तथा अन्य मंदिरों की दीवारों पर खुदे शिलालेखों को आठवीं से दसवीं सदी तक का माना गया है। मंदिर प्रांगण में ही पुरातत्व विभाग का संग्रहालय है जिसमें पत्थर, चांदी, अष्टïधातु आदि की कई प्राचीन मूर्तियां श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ रखी गई हैं। संग्रहालय में देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ ही कुमाऊं के चंद राजा दीप चंद, त्रिमल्ल चंद आदि शासकों की मूर्तियां भी रखी गई हैं। दीप चंद की मूर्ति के हाथ में रखे दीपक में रात-दिन अखंड ज्योति जलती है।
आम धारणा है कि शिव शंकर जगत के कल्याण के लिए जागेश्वर धाम में वास करते हैं। इस धाम में प्रतिवर्ष श्रावण मास में एक माह तक चलने वाला श्रावणी मेला लगता है। इस मेले में उत्तराखंड सहित देश के कोने-कोने से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचकर पूजा-अर्चना कर पुण्य कमाते हैं। ब्रह्मïमुहूर्त में जागेश्वर स्थित ब्रह्मïकुंड में लोग पवित्र स्नान करते हैं। पूरे श्रावण मास में इस मंदिर में श्रद्धालुओं की काफी चहल-पहल रहती है। इसके अतिरिक्त बैशाखी पूर्णिमा, कार्तिकी पूर्णमासी और शिवरात्रि के दिन भी यहां शिव भक्तों का तांता लगा रहता है। बैशाखी पूर्णमासी जागेश्वर धाम में आयोजित होने वाला सबसे प्राचीन उत्सव है जो कि चंदवंशीय दानवीर शासक राजा त्रिमल्ल चंद की स्मृति में आयोजित होता है।
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