एक जमाना था जब उत्तराखंड के कुमाऊं जंगलों में चाय के पौधे लावारिस रूप में उगते थे। खरपतवार के रूप में उगे इन चाय के पौधों का कोई उपयोग भी नहीं करता था। सन् 1823 में असम की धरती पर चाय के जंगली पौधों की खोज होने के बाद जब बिशप हेलर नामक सैलानी सन् 1824 में उत्तराखंड की यात्रा पर आया तो उन्होंने कुमांऊ के जंगलों में खड़े लावारिस चाय के पौधों को देखकर चाय की खेती की संभावना व्यक्त की। उन्होंने उत्तराखंड के भौगोलिक स्वरूप व जलवायु को चाय की खेती के अनुरूप मानते हुए लोगों को उत्तराखंड क्षेत्र में चाय की खेती की सलाह दी।
सहारनपुर के सरकारी बोटेनिकल गार्डन प्रमुख डा. रायले ने तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंग से पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड में चाय का उद्योग विकसित करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने का निवेदन किया। सन् 1834 में चाय उद्योग के लिए एक कमेटी गठित की गई और सन् 1835 में इस कमेटी के माध्यम से चाय की दो हजार पौध कोलकाता से मंगवाकर कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा क्षेत्र के भरतपुर में लाई गई जहां चाय की नर्सरी बनाकर चाय की खेती का विस्तार कुमाऊं के साथ-साथ गढ़वाल में भी किया गया। उन्नत खेती तकनीक एवं अनुकूल जलवायु के चलते चाय की खेती से पैदा हुई चाय की गुणवत्ता भी गज़ब की थी। तभी तो सन् 1842 में चाय विशेषज्ञों ने उत्तराखंड में पैदा हुई चाय को असम की चाय से भी श्रेष्ठï घोषित किया और इंगलैंड में भेजे गए उत्तराखंड के चाय के नमूनों को भी गुणवत्ता की दृष्टिï से श्रेष्टïतम माना गया था। इससे उत्साहित होकर सरकारी प्रोत्साहन के बलबूते उत्तराखंड की धरती पर सन् 1880 तक चाय की खेती का विस्तार 10937 एकड़ क्षेत्रफल तक पहुंच गया था जहां 63 चाय के बागानों के रूप में चाय की उन्नत खेती की गई। लेकिन उत्तराखंड में चाय का बाजार विकसित न होने, तत्कालीन समय में यातायात संसाधनों की कमी और चाय के निर्यात के लिए कोलकाता बंदरगाह पर ही निर्भर रहने के कारण उत्तराखंड की चाय को अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंचने में पसीने छूटे। भारी खर्च ट्रांसपोर्ट आदि में आने के कारण बाजारी मूल्य प्रतिस्पर्धा में गुणवत्ता रूप में श्रेष्ठï होते हुए भी उत्तराखंड की चाय असम की चाय का मुकाबला नहीं कर सकी। परिणामस्वरूप उत्तराखंड में चाय का उद्योग समय के साथ विकसित होने के बजाय ध्वस्त होता चला गया। समय के क्रूर हाथों में उत्तराखंड में कभी रौनक रहे 63 चाय के बागान भी इससे छीन लिये जिस कारण अब उत्तराखंड में चाय की खेती नाममात्र को ही रह गई है। हालांकि आज भी खरपतवार रूप में ही सही लेकिन भीमताल, कौसानी, इनागिरी, बेरीनाग, रानीखेत, भवाली इत्यादि जंगलों में चाय के पौधे खड़े नजर आते हैं।
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