Thursday, February 07, 2013

गोविन्द वल्लभ पन्त


गोविन्द वल्लभ पन्त (जन्म: १० सितम्बर, १८८७ - मृत्यु: ७ मार्च, १९६१) प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी और उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री थे। अपने संकल्प और साहस के धनी पन्तजी का जन्म अल्मोड़ा जिले के खोंत नामक ग्राम में हुआ था। सरदार वल्लभ भाई पटेल के निधन के बाद वे भारत के गृह मन्त्री बने। भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने और जमींदारी प्रथा को खत्म कराने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। भारत रत्न का सम्मान उनके ही गृहमन्त्रित्व काल में आरम्भ किया गया था। बाद में यही सम्मान उन्हें १९५७ में उनके स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने, उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री तथा भारत के गृह मन्त्री के रूप में उत्कृष्ट कार्य करने के उपलक्ष्य में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रदान किया गया

संक्षिप्त जीवनी
१० सितम्बर १८८७ को अल्मोड़ा जिले के श्यामली पर्वतीय क्षेत्र स्थित गाँव खोंत में जन्मे गोविन्द वल्लभ पन्त की माँ का गोविन्दी और पिता का नाम मनोरथ पन्त था। बचपन में पिता की म्रत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके दादा बद्री दत्त जोशी ने की।१९०५ में उन्होंने अल्मोड़ा छोड़ दिया और इलाहाबाद चले गये। म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में वे गणित, साहित्य और राजनीति विषयों के अच्छे विद्यार्थियों में सबसे तेज थे। अध्ययन के साथ-साथ वे कांग्रेस के स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे। १९०७ में बी०ए० और १९०९ में कानून की डिग्री सर्वोच्च अंकों के साथ हासिल की। इसके उपलक्ष्य में उन्हें कॉलेज की ओर से "लैम्सडेन अवार्ड" दिया गया।
१९१० में उन्होंने अल्मोड़ा आकर वकालत शूरू कर दी। वकालत के सिलसिले में वे पहले रानीखेत गये फिर काशीपुर में जाकर प्रेम सभा नाम से एक संस्था का गठन किया जिसका उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरुकता उत्पन्न करना था। इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था कि ब्रिटिश स्कूलों ने काशीपुर से अपना बोरिया बिस्तर बाँधने में ही खैरियत समझी। दिसम्बर १९२१ में वे गान्धी जी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन के रास्ते खुली राजनीति में उतर आये।

९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड करके उत्तर प्रदेश के कुछ नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लिया तो उनके मुकदमें की पैरवी के लिये अन्य वकीलों के साथ पन्त जी ने जी-जान से सहयोग किया। उस समय वे नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य भी थे। १९२७ में राम प्रसाद 'बिस्मिल' व उनके तीन अन्य साथियों को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिये उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा किन्तु गान्धी जी का समर्थन न मिल पाने से वे उस मिशन में कामयाब न हो सके। १९२८ के साइमन कमीशन के बहिष्कार और १९३० के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया और मई १९३० में देहरादून जेल की हवा भी खायी।

राजनयिक के रूप में
१७ जुलाई १९३७ से लेकर २ नवम्बर १९३९ तक वे ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा यू०पी० के पहले मुख्य मन्त्री बने। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर सौंपा गया और वे १ अप्रैल १९४६ से १५ अगस्त १९४७ तक संयुक्त प्रान्त (यू०पी०) के मुख्य मन्त्री रहे। जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्व सम्मति से उपयुक्त पाया गया। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वे २६ जनवरी १९५० से लेकर २७ दिसम्बर १९५४ तक मुख्य मन्त्री रहे।
सरदार पटेल की मृत्यु के बाद उन्हें गृह मंत्रालय, भारत सरकार के प्रमुख का दायित्व दिया गया। भारत के रूप में पन्तजी का कार्यकाल:१९५५ से लेकर १९६१ में उनकी मृत्यु होने तक रहा।
सम्मान
पन्तजी की जीवन भर की उल्लेखनीय गतिविधियों के लिये वर्ष १९५७ में उन्हें भारत रत्न सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किया गया। यह सम्मान पाने वाले वे सातवें व्यक्ति थे। ७ मई, १९६१ को हृदयाघात से जूझते हुए उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय वे भारत सरकार में केन्द्रीय गृह मन्त्री थे। उनके निधन के पश्चात लाल बहादुर शास्त्री उनके उत्तराधिकारी बने।

देवभूमि (उत्तराखंड ) में घी देने वाला पेड़!


आसमान छूती महंगाई के इस दौर में कोई पेड़ घी देने लगे, तो इससे सुखद स्थिति और क्या होगी। चौंकिए नहीं, इस तरह का पेड़ उत्तराखंड में है। च्यूर नाम का यह पेड़ देवभूमि वासियों को वर्षों से घी उपलब्ध करा रहा है। इसी खासियत के कारण इसे इंडियन बटर ट्री कहा जाता है। बस, जरूरत इसके व्यावसायिक इस्तेमाल की है।
 'च्यूर' यानी 'डिप्लोनेमा ब्यूटेरेशिया' एवं 'एसेन्ड्रा ब्यूटेरेशिया' के पेड़ 2000 से 5000 फीट तक की ऊंचाई पर पाये जाते हैं। इसे फुलावार, गोफल आदि नामों से भी जाना जाता है। यह महुआ प्रजाति के पेड़ों से मिलता-जुलता है। उत्तराखंड के अलावा सिक्किम, भूटान, नेपाल में भी च्यूर के वृक्ष बहुतायत में पाए जाते हैं। उत्तराखंड की बात करें तो यहां च्यूर के 50-60 हजार पेड़ हैं। इनमें से करीब 80 फीसदी से फल व बीज प्राप्त किए जा सकते हैं। दूध की तरह मीठे और स्वादिष्ट होने के कारण इसके फलों को चाव से खाया जाता है। मक्खन प्रदान करने वाले बीजों के कारण इसे 'बटर ट्री' भी कहा जाता है। च्यूर के बीजों से मिलने वाले मक्खन से चमोली के अलावा पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चंपावत व नैनीताल जिलों में सदियों से घी बनाया जाता है।
नाबार्ड समेत गैर सरकारी संस्थाओं के अध्ययन बताते हैं कि उत्तराखंड में प्रतिवर्ष 120 टन यानी बारह हजार कुंतल च्यूर घी [वनस्पति घी] के उत्पादन की संभावना है। हालांकि, फिलहाल करीब 110 कुंतल ही उत्पादन हो पा रहा है। जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि के डा.वीपी डिमरी बताते हैं कि दूध की तरह मीठा और स्वादिष्ट होने के कारण च्यूर के फलों को चाव से खाया जाता है। दुनिया में तेल वाले पेड़ों की सैकड़ों प्रजातियां हैं, लेकिन कुछ ही ऐसी हैं, जिनसे खाद्य तेल प्राप्त किया जा सकता है। डा.डिमरी कहते हैं कि यदि च्यूर के व्यावसायिक उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए, तो यह राज्य की आर्थिक स्थिति को बदल सकता है।
दो हजार से पांच हजार फीट की ऊंचाई पर पाए जाने वाले च्यूर वृक्ष के बीजों से चमोली के कुछ हिस्सों समेत पिथौरागढ़, अल्मोड़ा व नैनीताल में दशकों से वनस्पति घी का उत्पादन किया जा रहा है। हालांकि, वहां के निवासी केवल अपनी जरूरत भर ही इस घी का उत्पादन करते रहे हैं। इसके व्यावसायिक उत्पादन के बारे में प्रयास चल रहे हैं।
कुमाऊं मंडल में च्यूर, जिसका वानस्पतिक नाम डिप्लोनेमा ब्यूटेरेशिया अथवा एसेन्ड्रा ब्यूटेरेशिया है, के करीब 60 हजार पेड़ हैं। इनमें से करीब 40 हजार पेड़ों से फल और बीज प्राप्त किए जा सकते हैं। च्यूर को अलग-अलग क्षेत्रों में फुलावार, गोफल आदि नामों से भी जाना जाता है। यह महुआ के वृक्षों से मिलता-जुलता है। सिक्किम, भूटान व नेपाल में भी च्यूर के वृक्ष हैं। सिक्किम में च्यूर के फल 25-30 रुपये किलो बिकते हैं।