Thursday, January 31, 2013

खतड़ुआ

उत्तराखण्ड में प्रारम्भ से ही कृषि और पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत रहा है। जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के कारण व्यापार की संभावनाएं नगण्य थीं, लेकिन कम उपजाऊ जमीन होने के बावजूद कृषि और पशुपालन ही जीवनयापन के प्रमुख आधार थे। आज भी कृषि और पशुपालन से सम्बन्धित कई पारम्परिक लोक परम्पराएं और तीज-त्यौहार पहाड़ के ग्रामीण अंचलों में जीवित हैं। इन त्यौहारों में हरियाली और बीजों से सम्बन्धित त्यौहार “हरेला” है, पिथौरागढ में मनाया जाने वाला “हिलजात्रा” एक ऐसा पर्व है, जिसमें कृषि-पशुपालन को विशिष्ट मुखौटों और नृत्यों के साथ मैदान में प्रदर्शित किया जाता है। पशुधन की प्रचुरता का लुत्फ उठाने का त्यौहार घी-त्यार के रुप में मनाया जाता है, इसी प्रकार से दीपावली के दो दिन के बाद होने वाले “गोवर्धन पूजा” पर गाय-भैंस व बैलों को सजाया जाता है, जो पर्वतीय अंचल के लोगों के पशुप्रेम और उनके प्रति उत्तरदायित्व को दर्शाता है। इसी प्रकार से भादों (भाद्रपद) के महीने में मनाया जाने वाला “खतड़ुवा” पर्व भी मूलत: पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व है। कुछ राजनीतिक प्रपंचों और बंटवारे की भावना वाले लोगों ने इस त्यौहार के साथ कई मनगढन्त किस्से जोड़ दिये हैं। जिससे इस पर्व को मनाने का मूल उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है।

खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े. गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरु हो जाता है। यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं. इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है। इस त्यौहार के दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं. पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है और उन्हें पकवान बनाकर खिलाया जाता है। पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है. शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है, इसलिये “खतड़ुवा” के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है. शाम के समय घर की महिलाएं खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करती हैं और पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल (खतड़ुवा) को बार-बार घुमाया जाता है और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को दुख-बीमारी से सदैव दूर रखें।  गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं गौशाला के अन्दर से मशाल लेकर महिलाएं भी इस ,चौराहे पर पहुंचती हैं और इस लकड़ियों के ढेर में “खतड़ुआ” समर्पित किये जाते हैं। ढेर को पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर “बुढी” जलायी जाती है. यह “बुढी” गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानी जाती हैं, जिनमें खुरपका और मुंहपका मुख्य हैं. इस चौराहे या ऊंची जगह पर आकर सभी खतड़ुआ जलती बुढी में डाल दिये जाते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं-

भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा,
गै की जीत, खतडुवै की हार
भाग खतड़ुवा भाग

अर्थात गाय की जीत हो और खतड़ुआ (पशुधन को लगने वाली बिमारियों) की हार हो।

अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग न मिल, गैड़ नि मिल।इसके साथ ही बच्चे पड़ोस के गांववालों को ऊंची आवाजों में उनकी गाय-भैंसों को लगने वाली बीमारियां अपने घर ले जाने के लिये भी आमन्त्रित करते हैं। इस अवसर पर हल्का-फुल्का आमोद-प्रमोद होता है और ककड़ी को प्रसाद स्वरूप वितरित किया जाता है. इस तरह से यह त्यौहार पशुधन को स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट बने रहने की कामना के साथ समाप्त होता है। इस महत्वपूर्ण पर्व के सम्बन्ध में पिछले दशकों से कुछ भ्रान्तियां फैलायी जा रही हैं। एक तर्कहीन मान्यता के अनुसार कुमाऊं के सेनापति गैड़ सिंह ने गढवाल के खतड़ सिंग (खतड़ुवा) सेनापति को हराया था, उसके बाद यह त्यौहार शुरू हुआ. लेकिन अब जबकि लगभग सभी इतिहासकार वर्तमान उत्तराखण्ड के इतिहास में गैड़ सिंह या खतड़ सिंह जैसे व्यक्तित्व की उपस्थिति और इस युद्ध की सच्चाई को नकार चुके हैं तो इन सब कुतर्कों पर बहस करना मूर्खता ही माना जायेगा। इस काल्पनिक युद्ध की घटना का उल्लेख गढवाल या कुमाऊं के किसी ऐतिहासिक वर्णन में नही है। कुमाऊंनी के प्रसिद्ध कवि श्री बंशीधर पाठक “जिज्ञासु” की कविता की कुछ पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं.-

कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै,
बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल,
स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं, जागसर गयूं, बागसर गयूं,
अलम्वाड़ कि नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।

यह भी सोचनीय विषय है कि पूरे विश्व के इतिहास में आज तक कोई ऐसा युद्ध नहीं हुआ, जिसमें जीत या हार का श्रेय किसी सेनापति को दिया गया हो। हमेशा ही युद्ध की जीत या हार का श्रेय सिर्फ और सिर्फ राजा को ही  मिला है। दूसरा पक्ष यह भी है कि उत्तराखण्ड का सबसे प्रमाणिक इतिहास एटकिन्सन के गजेटियर को माना जाता है, क्योंकि उसने ही पूरे उत्तराखण्ड में घूमकर इसकी रचना की थी। यदि ऐसा कुछ होता तो उन्होंने इसका भी वर्णन जरुर किया होता। इसलिये अब जरूरत है कि हम अपनी समृद्ध धरोहरों के रूप में चले आ रहे खतड़ुआ जैसे अन्य पर्वों को उनमें निहित सकारात्मक सन्देश के साथ मनायें और उनसे जुड़ी भ्रान्तियों को यथाशीघ्र मिटाते चलें जायें, जिससे आने वाली पीढियां भी इन परम्पराओं और लोकपर्वों को खुले मन से मना पायें। 

लेखक- श्री हेम पन्त

Monday, January 28, 2013

Haidakhan Babaji

Haidakhan Babaji, simply called "Babaji" or Bhole Baba by his students and devotees, was a teacher who appeared in northern India(Uttarakhand) and taught publicly from 1970 to 1984. 
Life
Manifestation
According to “The Teachings of Babaji” Haidakhan Babaji “appeared” in June 1970 in a cave at the foot of the Kumaon Mount Kailash, across the river Gautama Ganga, near a remote village called Hairakhan, in the Nainital District of Uttrakhand, India. His followers maintain that Haidakhan Babaji is a Mahavatar – “a human manifestation of God, not born from woman.”
Meditation on Kumaon Mount Kailash
It is reported that starting in late September 1970 Haidakhan Babaji spent forty-five days meditating in a small temple on the top of the Kumaon Mount Kailash “without leaving his seat.
Ashrams
In September 1971, Haidakhan Babaji, in a sworn testimony, convinced the judge of the court in Haldwani that he was the “Old Hairakhan Baba,” thought to be active in that region in the years 1860-1922, and that he had the right to use the ashrams in Kathgaria and Haidakhan.
Travels
In 1971 Haidakhan Babaji started travelling across India, proclaiming his Message, performing sacred ceremonies, such as yagna, and attracting more devotees. This included celebrities, such as Shammi Kapoor, and gradually more Westerners.
Mahasamadhi
Though some of his followers believed he was immortal, Haidakhan Babaji died (his followers prefer the term “left his body” or “entered mahasamadhi”) on 14 February 1984, of what appeared to be a heart failure. He was buried in Haidakhan Ashram. This is how Babaji foretold and explained his death:
My body is meant to dry up one day. This body is nothing; it is here only to serve people. Even my own body has come only to perform a duty to serve all human and all living things.
Teachings
Sanatan Dharma
Although worshipped according to local customs, Haidakhan Babaji explained that he came to restore Sanatan Dharma rather than Hindu Dharma (Hinduism). Sanatan Dharma can be understood as a primordial religion reflecting natural laws established at the beginning of the Creation. This is how Vishnu Dutt Shastriji, a scholar and one of Babaji's followers, explained Sanatan Dharma:
He (Babaji) is not preaching any new religion. He has come to preach the religion, which occurred at the time of Creation, and that is the Sanatan Dharma - the Eternal Religion. He has come to preach the Sanatan Dharma only.
We can determine the date from which every religion started. For example, the Muslim religion was started by Mohammed 1400 years ago and this is recorded in their scriptures. Christianity started with birth of Christ, 2000 years ago. Before Christ and Mohammed existed, the world and its people were living. The Sanatan Dharma has been followed for thousands and millions of years and no one is able to trace the date it began.
You may try to understand this spontaneous religion this way: the dharma (law or nature) of fire is to burn; the dharma of water is to be wet; the air has to blow. Can one tell on what day the fire started to burn, the water to be wet, and the air to blow? No one can say.
Sanatan Dharma is like a great ocean. From that ocean, each country has dug canals according to their needs and purposes. But canals cannot give total satisfaction as the ocean gives complete bliss. The Lord

Sunday, January 27, 2013

पाताल भुवनेश्वर गुफा


 उत्तराखण्ड की पहाड़ी वादियों के बीच बसे सीमान्त कस्बे गंगोलीहाट की पाताल भुवनेश्वर गुफा किसी आश्चर्य से कम नही है। यहां पत्थरों से बना एक. एक शिल्प तमाम रहस्यों को खुद में समेटे हुए है। मुख्य द्वार से संकरी फिसलन भरी 80 सीढियां उतरने के बाद एक ऐसी दुनिया नुमाया होती है जहां युगों युगों का इतिहास एक साथ प्रकट हो जाता है। गुफा में बने पम्थरों के ढांचे देष के आध्यात्मिक वैभव की पराकाष्ठा के विषय में सोचने को मजबूर कर देते हैं। पौराणिक महत्व पुरातात्विक साक्षों की मानें तो इस गुफा को त्रेता युग में राजा ऋतुपर्ण ने सबसे पहले देखा। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु शकराचार्य का 822 ई के आसपास इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया। इसके बाद चन्द राजाओं ने इस गुफा के विशय मे जाना।और आज देष विदेष से षैलानी यहां आते हैं। और गुफा के स्थपत्य को देख दांतो तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाते हैं।

मान्यताएं चाहे कुछ भी हो पर एकबारगी गुफा में बनी आकृतियों को देख लेने के बाद उनसे जुड़ी मान्यताओं पर भरोसा किये बिना नहीं रहा जाता। गुफा की शुरुआत में शेषनाग के फनों की तरह उभरी संरचना पत्थरों पर नज़र आती है। मान्यता है कि धरती इसी पर टिकी है। आगे बढने पर एक छोटा सा हवन कुंड दिखाई देता है। कहा जाता है कि राजा परीक्षित को मिले श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए उनके पुत्र न्मेजय ने इसी कुण्ड में सभी नागों को जला डाला परंतु तक्षक नाम का एक नाग बच निकला जिसने बदला लेते हुए परीक्षित को मौत के घाट उतार दिया। 
हवन कुण्ड के ऊपर इसी तक्षक नाग की आकृति बनी है। आगे चलते हुए महसूस होता है कि हम किसी की हडिडयों पर चल रहे हों। सामने की दीवार पर काल भैरव की जीभ की आकृति दिखाई देती है। कुछ आगे मुड़ी गरदन वाला गरुड़ एक कुण्ड के ऊपर बैठा दिखई देता है। माना जाता है कि शिवजी ने इस कुण्ड को अपने नागों के पानी पीने के लिये बनाया था। इसकी देखरेख गरुड़ के हाथ में थी। लेकिन जब गरुड़ ने ही इस कुण्ड से पानी पीने की कोशिश की तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदल मोड़ दी। कुछ आगे ऊंची दीवार पर जटानुमा सफेद संरचना है। यहीं पर एक जलकुण्ड है मान्यता है कि पाण्डवों के प्रवास के दौरान विश्वकर्मा ने उनके लिये यह कुण्ड बनवाया था। कुछ आगे दो खुले दरवाजों के अन्दर संकरा रास्ता जाता है। कहा जाता है कि ये द्वार धर्म द्वार और मोक्ष द्वार है । आगे  है आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित तांबे का शिवलिंग। माना यह भी जाता है गुफा के आंखिरी छोर पर पाण्डवों ने शिवजी के साथ चौपड़ खेला था। लौटते हुए एक स्थान पर चारों युगों के प्रतीक चार पत्थर हैं। इनमें से एक धीरे धीरे ऊपर उठ रहा है। माना जाता है कि यह कलयुग है और जब यह दीवार से टकरा जायेगा तो प्रलय हो जायेगा। गुफा की शुरुआत पर वापस लौटने पर एक मनोकामना कुण्ड है। 

मान्यता है कि इसके बीच बने छेद से धातु की कोई चीज पार करने पर मलोकामना पूरी होती है। आष्चर्य ही है कि जमीन के इतने अन्दर होने के बावजूद यहां घुटन नहीं होती शान्ति मिलती है। देवदार के घने जंगलों के बीच बसी रहस्य और रोमान्च से सराबोर पाताल भुवनेश्वर की गुफा की सैलानियों के बीच आज एक अलग पहचान है। कुछ श्रृद्धा से, कुछ रोमान्च के अनुभव के लिये, और कुछ शीतलता और शान्ति की तलाश में यहां आते हैं। गुफा के पास हरे भरे वातावरण सुन्दर होटल भी पर्यटकों के लिये बने हैं। खास बात यह है कि गंगोलीहाट में अकेली यही नहीं बल्कि दस से अधिक गुफाएं हैं जहो इतिहास की कई परतें, मान्यताओं के कई मूक दस्तावेज खुदबखुद खुल जाते हैं। आंखिर यूं ही गंगोलीहाट को गुफाओं की नगरी नहीं कहा जाता।

Saturday, January 26, 2013

Abbott Mount Cottage


Abbott Mount Cottage is located near Indo-Nepal border in the state of Uttarakhand, 165km away from Kathgodam railway station & 9km from Lohaghat. This colonial style lodge offers four rooms. The lodge is well furnished with en suite western style toilets, a kitchen where one can avail the services of our cook. The place is excellent for birding, Himalayan views and nature treks. This also serves as a base for anglers who wish to fish Mahseer at Pancheshwar, a confluence of Saryu and Mahakali rivers.
Abbott Mount 

This historic hamlet of Abbott Mount is situated at an altitude of about 6500 ft above sea level in the eastern part of the Kumaon Hills near the small town of Lohaghat in Champavat District. Abbott Mount was founded by and named after Mr. John Harold Abbott. 
An English businessman who wanted to start a hill station for the European community at the turn of the 20th century. Unlike many Indian hill stations Abbott Mount has changed little since its inception. There are only thirteen secluded cottages spread over this private hill. There is a picturesque church set amidst the forest and an old cricket pitch with an unsurpassed view of the mountains.
The period or season time to attain Abbott Mount hill station is complete year so reaching there or planning to visit the place at the particular time is not required. However, reaching the station in monsoon could be little difficult because of cold and landslide problems. Tourist might face obstructions along the way because of landslides. In winters, tourist may get snow or can entitle for ice events. As pre experts reaching Abbott Mount is best in summer season as the place remains enjoyable and decent.

Friday, January 25, 2013

OBSERVATORY NAINITAL


OBSERVATORY :- It is about 4.5 km from Nainital. Situated at an altitude of (1951 MT). Observatory is basically a place of astronomical studies. Public is shown round some of the instruments during working days at afternoons. For night viewing three four days on moonlight nights are fixed and permission is needed.

The clear skies over Nainital prompted the government to setup an observatory here. The observatory has one of the most advance telescopes in India. Observatory was established at Nainital in 1955 and shifted to present location of Manora Peak in 1961. Aryabhatta Research Institute of Observational Sciences (ARIES) is an autonomous institute devoted to research and development in Astronomy & Astrophysics and Atmospheric Sciences. The Institute is funded by the Department of Science and Technology (DST), Government of India.

The primary objective of the observatory has been to develop facilities for modern astrophysical research in stellar, solar & theoretical branches of astrophysics. 

With prior permission, visitors can get access to the observatory and also experience the pleasure of viewing celestial objects through the telescope, provided the nights are clear enough. With the help of this telescope the movement of stars, planets and other heavenly bodies can be calculated to great precision.

Thursday, January 24, 2013

सुमित्रानंदन पंत उतराखंड के कीमती रत्न


सुमित्रानंदन पंत
सुमित्रानंदन पंत का जन्म उतराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसौनी गाँव मे २० मई  सन १९०० ई. मे हुआ था | जन्म के कुछ घंटे बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया | उनकी प्राम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा जिले  मे  हुई  | १९१९ मे उन्होने उच्च शिक्षा के लिये म्योर सेंट्रल कॉलेज  इलाहाबाद मे प्रवेश लिया उन्ही दिनों गाँधी जी के नेतृत्व मे चल रहे असहयोग आन्दोलन से जुड़ गए और पढाई छोड़ दी | उन्होंने प्रगतिशील साहित्य के प्रचार-प्रशार के लिए रूपाम नामक पत्रिका का प्रकाशन कर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई | सन १९५० से १९५७ तक पंत जी आकाशवाणी हिंदी के परामर्शदाता रहे | उत्कृष्ट साहित्य साधना के लिए उन्हें"सोवियत" भूमि ने नेहरु पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया | सन १९७१ में भारत सरकार ने 'पदम् भूषण' की उपाधि से विभूषित किया | सन १९७७ में पंत जी का निधन हो गया | 

सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ
सुमित्रानंदन पंत संवेदनशील, मानवतावादी और प्रकृति प्रेमी कवि है | प्रकृति चित्रण के क्षेत्र में वे अपना सनी नहीं रखते उनकी और रचनाओ मेंवीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्य, उतरा, स्वर्ण किरण, कला और बुढा चाँद, चिदंबरा, लोकायतन आदि प्रमुख कृतिया है |

सुमित्रानंदन पंत की भाषा शैली
सुमित्रा नन्द पंत ने अपनी रचानो के लिए साहित्यिक खडी बोली को अपनाया है | उनकी भाषा सरल स्वाभाविक एवं भावनाकुल है | उन्होंने तत्सम शब्दों की बाहुबल के साथ साथ अरबी, ग्रीक, फारसी, अंग्रेजीभाषाओ के शब्दों का भी प्रयोग किया है |
"उदहारण- ग्राम श्री कविता में इसकी झलक देखने को मिल सकती है | ग्राम श्री का अर्थ है गाँव की लक्ष्मी, गाँव की सम्पन्नता कवि इस कविता में भारतीय गाँव की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करता है | भारतीय गाँव में हरी-भरी लहलहाती फसले, फल-फूलो से भरे पेड़ नदी-तट की बालू आदि कवि को मुग्ध कर देती है यहाँ गंगा के रेत का मनोहारी वर्णन किया जा रहा है |
बालू के सापों से अंकित गंगा की सतरंगी रेती सुन्दर लगती संपत छाई तट पर तरबूजो के खेती; आंगुली की कंघी से बगुले कलंगी सवारते है कोई तिरते जल में सुरखाव, पुलित पर मगरोठी रहती सोई | बालू पर बने निशाने को " बालू के सांप कहकर संबोधित किया है | गंगा की रेती जो सूर्य का प्रकाश पड़ने के कारण सतरंगी बनकर चमक रही है वह बालू के सांपो से अंकित है उसके चारो और सरपट की बनी झाड़ियो और तट पर तरबूजो के खेत बड़े सुन्दर लगते है | जल में अपने एक पैर को उठा उठा कर सर खुजलाते बगुले ऐसे दिखाई पड़ते है जैसे बालो में खंघी कर रहे हो | गंगा के उस प्रवाहमान जल में कही सुर्खन तैर रहे है तो कही किनारे पर मगरोठी (एक विशेष चिड़िया) ऊँघती हुई भी दिखाई पड़ रही है |

कविता
हसमुख हरियाली हिम-आतप
सुख से अलसाए से सोये, 
भीगी अंधियाली में निशि की
तारक स्वप्न में से खोए
मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम 
जिस पर नीलम नभ आच्छादन
निरुपम हिमांत में स्निग्ध शांत
निज शोभा से हरता जन मन |

कवि बसंत के आगमन पर हरियाली को अपने में समेटे इस मादक मौसम और गाँव के संपूर्ण दृश्य कैसा लगता है इसका वृणन किया है की रात की भीगी अंधियारी में सुख के कारण उत्पन्न हुए आलस से युक्त हरीतिमा को धारण करने वाली फसले जैसे रात और तारो के सपनो में खोई हुई सी सो रही है और पन्ने जैसी हरित छवि वाली इन फसलो को धारण करने वाली धरती का पन्ने (मरकत) की डिब्बे जैसा है | " इस मरकत डिब्बे जैसे गाँव के ऊपर नीला आकाश ऐसे छाया है जैसे 'नीलम' का आच्छादन हो | अनुपमेय शोभा युक्त गाँव की यह स्निग्ध छटा इस बसंती मौसम में अपनी शोभा से मन को हर लेने वाली है | 
यहाँ पर कवि ने गाँव को 'मरकत डिब्बे' सा खुला कहा है | पन्ना नाम के हरे कीमती रत्न को मरकत कहा जाता है | गाँव हरा-भरा है पन्ने के रंग का है और पन्ने के सामान ही बहुमूल्य भी है डिब्बे में बहुत सी अन्य वस्तुए होती है गाँव रूपी पन्ने की डिब्बी में अनेक वस्तुए सजी है | कविता में सुन्दर प्राकृतिक चित्रण है | बसंत ऋतू में गाँव की सम्पनता चित्रित की गई है|

हिंदी साहित्य में सुमित्रा नंदन पंत का नाम बहुत ही आदर से लिया जाएगा |

Adi-Kailash (Chhota Kailash)


Adi-Kailash (Chhota Kailash)
OM PARVAT
  
Adi Kailash is an ancient holy place in the Himalayan Range, similar to Mount Kailash in Tibet. This abode of Lord Shiva ina remote area is worth to have a Darshan. Trekking to Adi Kailash in the Himalayan ranges of Kumaun region near the Indo Tibetan Border in district Pithoragarh.

Upto Gunji the route is same. One walks 14 km, first to the left of Kuti and then to the right, to reach Jollingkong (4572 m). The river Kuti and its bridge will perhaps may be under a thick blanket of snow.

Jonglingkong is called Chhota Kailas (6191 m) while its small but beautiful lake is called Parvati Tal. The reflection of the peak in the lake is really fascinating.There is a temple near the lake, which is sometimes visited by swan-like birds. 

A little distance from here are to be found the remains of a dry lake. Along the river Kuti are two passes - Lampia Dhura and Mangsa Dhura - leading to Tibet. The ITBP and SPF personnel will tell whether one can cross the Sinla pass to reach Bedang. If this is not possible one will have to return. If there is little or no snow, one should set out early in the morning to cross the pass. The route to Sinla pass is under a heavy blanket of snow. One can see the Chhota Kailas peak constantly from there.

Monday, January 21, 2013

शेरदा ‘अनपढ़’ शतशः प्रणाम!


शेरदा ‘अनपढ़’ ने अपनी दुदबोलि को भाषा के रूप में स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया। वे ठेठ जमीन से जुड़े कवि हैं। उनकी कविताओं में गोठों की गंध, माटी की सुगंध, प्रकृति के इन्द्रधनुषी रंग, ग्रामीण जीवन का अश्रु-हास, गरीबी का दंश, कृषि-जीवन की पटकथा के संग गाँवों के रंग-ढंग आदि एक साथ देखे जा सकते हैं। जीवन की असारता, मृत्यु-बोध, गाँव की सादगी, शहरी जीवन का दिखावा, मूल्यहीनता, नेताओं की चरित्रहीनता, आर्थिक विषमता, मानवीय मूल्यों के ह्रास आदि को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया है। इन सबके बीच प्रेमानुभूति एवं सौदर्य की मधुरिमा के दर्शन भी होते हैं। उनकी कविता में सागर-सी गहराई, हिमालय-सी ऊँचाई, धरती-सी व्यापकता, चिन्तन की आध्यात्मिकता, भावों की उदात्तता तथा जीवन की जीवन्तता देखी जा सकती है। शेरदा ने जिस खसपर्जिया कुमाउनी में कविता की रचना की है, उसमें काव्यत्व के सभी गुण विद्यमान हैं।
शेरदा में गूढ़ दार्शनिक विचार को ‘कवित्व’ रूप में व्यक्त करने का ‘विट’ सहज रूप में विद्यमान है। ‘मुर्दाक् बयान’ में वे कहते हैं:-

जब तलक बैठुँल कुनैछी, बट्यावौ-बट्यावौ है गे।
पराण लै छुटण नि दी, उठाओ-उठाओ है गे।।

जीवन-मृत्यु और सुख-दुःख के बारे में न जाने कितने कवियों, दार्शनिकों ने कहा होगा, जरा शेरदा के दूल्हे और मुर्दे के रूपक में खुशी और गम के दो संश्लिश्ट बिम्बों को देखकर न हँसते बनता है और न रोते:-
एक डोलि पुजूनऊँ, एक डोलि छजूनऊँ, एक दी जगूनऊँ, एक दी निमूनऊँ।
खरीदनैई लुकुड़ लोग एक्कै दुकान बटि, क्वे कै हूँ लगनाक, क्वे कै हूँ कफनाक।
‘प्रेम’ के सुकोमल, सुमधुर, सरस एवं आह्लादकारी मनोभाव की दृष्टि से ‘को छै तु’ और ‘अन्वार’ अद्भुत कवितायें हैं। ‘को छै तु’ कविता में शेरदा ने लोकजीवन से संबद्ध एवं लोकरस से सम्पृक्त उपमानों से नारी सौन्दर्य की सृष्टि की है:-

भ्यार बै अनारै दाणि, भितेर बै स्यो छै तु ?
नौ रति बावन त्वालैकि, ओ दाबणी को छै तु ?

प्रकृति संबंधी कविताओं में-‘बसंत’, ‘मैतुड़ देश’, ‘चैमासकि ब्याव’, ‘मेरि थात’ उल्लेखनीय हैं। लोकतत्व के भाषिक संस्पर्श से एक भिन्न प्रकार का संवेदनात्मक वातावरण उत्पन्न करते बसंत को देखिये:-
छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात, कौंई गईं दिन राँडा बौई गईं रात।
‘चैमासकि ब्याव’ में बहुरंगी एवं बहुभंगी दृश्यों से वर्षा की मादकता का उत्सव बना दिया है, मानो प्रकृति-नटी किसी विवाहोत्सव की तैयारी कर रही हो:-

सौंणि धरतिल बणै हैली नौणि जै गात , ब्यौल जा दिन देखींनई, ब्यौलि जै रात!

गाँवों से लेकर केन्द्र तक राजनीति तथा लोकतंत्र के विद्रूप को ‘सभा’ कविता में देखा जा सकता है-

जाँ बात-बात में हात मानीं
वै हैतीं कूनी ग्राम सभा…
जाँ सब कूनी और क्वे न सुणन
वै हैतीं कूनी लोक सभा!
और वोट हथियाने का क्रूर यथार्थ -
नेताज्यू बोटैकि ओट में चटणि चटै गईं।
यौ-ऊ मिलौल कै सौ गिन्ती रटै गईं।.

‘हरै गौ म्यर गौं’ कुमाऊँ के ग्रामीण जीवन का समग्र जीवन्त सांस्कृतिक इतिहास है। इसे बदलते भारतीय गाँवों का समाजशास्त्रीय अध्ययन माना जा सकता है:-

काँ गोछा रे रीति-रिवाज, रीति-रस्मो, काँ गोछा मुख मोडि़बेर।
को मुलुक दूर टाड़ बसि गोछा तुम, मै-माटि कैं छोडि़बेर।

इस कविता में लोकगाथा की तरह काव्य एवं गद्य का संश्लिष्ट रूप परस्पर गुँथा दिखाई देता है।
इतने बड़े फलक पर रचना कर शेरसिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ ने कुमाउनी कविता के लिये एक नई जमीन तलाशी और उसे अन्य भारतीय भाषाओं के काव्य के समकक्ष खड़ा किया। सामान्य बोलचाल की अपरिष्कृत भाषा को किस तरह काव्य सौन्दर्य से मंडित किया जा सकता है, इस हुनर को शेरदा में देखा जा सकता है।
इस कालजयी कवि को शतशः प्रणाम!
  
"बख्ता तेरी बले ल्युल" 
बूब जै जवान नाती जे लूल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक की लटी, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येल कूना मी बाब कै चूटूल 
ब्वारी कूने मी सास को कूटूल 
भाई कूनो मी भाई को लूटूल 
और दुनि कुने रे मी ठूल रे ठूल 
जदुक च्याल उदूके चूल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल 

च्याल मारणी बाब के लात 
और सास जोड़ने ब्वारी हाथ 
च्येल ब्वारी नक खिल्खिलात 
बुड़ बुडियाक पड़ो टिटाट 
बाव है गयी घर का ठूल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
मुख मे मलाई भिदेर जहर 
ओ इजा गोनु मिले पूज को सहर 
टीक मे कपाई लाल पील 
दिल मे देखो मुसाक बिल 
चानी मे चनन और दिल मे दुल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल 

मुस पेटन धान भूष 
बिराव पेटन ज्युन मुस 
मोटियेल पतव कै चूस 
मेस खे बेर मेस खुश 
कल्जुगा का भाग खुल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून 

झूठ कै देखि साच 
चोर देख माज्बर डरनी 
उज्याव देख अन्यार डरनी 
मुस देख बिराव डरनी 
मुसक पौथ धरु है ठूल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल 

तराजू भो टूकी मे ल्हें गो 
भेसैक भो बोकी मे ल्हें गो 
तौल कस्यार दाड़ मे ल्हें गे 
ओ इजा घागेरी सुरयाव नाड़ी मे ल्हें गे 
माट है गो सुनुको मोल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल 


फैशन रंग मे सौ भर ल्हें गो 
लुकुड़ आंग मे पौ भर रे गो 
राड़ने ए गे गाव मे आन्गेडी 
ओ बाज्यु आन्गेडी मेले भौजी नागेड़ी 
आय कि देखो आय देखुल 
बख्ता तेरी बले ल्युल 
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली 
बख्ता तेरी बले ल्युल
courtesy-http://www.nainitalsamachar.in

Sunday, January 20, 2013

Gharat of uttranchal

Anyone living in the hills of the state of Uttaranchal in India would know what a gharat is. The somewhat subdued rolling sound of a continuous friction between heavy stones near the river betrays the presence of a gharat nearby. These gharats have a momentous role in utilization of mechanical power from water streams mainly for grinding purpose.

The traditional Himalayan water mill or the gharat is of the vertical shaft type. The gharats in Uttaranchal can be found alongside the rivers. To run these mills a channel is dug along the river to carry the water up to the mill-house. The gradient of the channel for the flow of the diverted water is less than the gradient of the river. With this, after several hundred meters from the diversion, a fall of 2 to 6 meters is achieved for the water. In this manner water from the stream is tapped and routed through the chute, which then falls on the flat blades. The water chute consists of an open channel either made from wooden planks or carved from a large tree trunk. The chute is narrowed down towards the lower end forming a nozzle. The force of the water let through the chute with a head of 2 to 6 meters strikes the blades and rotates the wheel, which in turn, rotates the metal shaft. The head of the water varies from place to place depending upon the availability of the fall.
 
The wooden blades are fitted to a thick vertical wooden shaft, tapering at both ends. Two round millstones, hewn locally, are fitted at the top of the shaft to act as the grinding mill. The wooden shaft of the turbine is supported on a stone pivot through a steel pin and held in the sliding bearing at the top. The sliding bearing is a wooden bush fixed in the lower stationary grinding stone. The top-grinding wheel rests on the lower stone and is rotated by the turbine shaft through a straight slot coupling. The gap between the stone is adjusted by lifting the upper stone with the help of a mechanical lever. The blades vary in number in different gharats from 11 to 21, which is fixed lengthwise at the axis to transmit the entire load to an iron base.
At opposite end from the cylindrical axis, a long shaft connects it to the upper part of the grinder stone. It is interesting to note that the fitness and quality of grain can be determined even in this nature-run process for which a groove is made into the upper grinder to set a tapered iron piece that holds the shaft and grinder simultaneously. An iron base bears the load of the system that in turn diffuses it over the horizontally laid plank. One end of the plank is attached to an adjusting lever, which moves upward and downward. The lever governs the distance between the moving and the stationary part of the grinder. An upward movement of the lever allows for coarse grinding while the downward is for fine grinding. Traditionally, channels divert the water from stream/ river to the mill. A device is also incorporated in the channel to divert the water if the water mill is not in operation. This device redirects water. It's a simple but an ingenious construction and can be maintained with simple understanding of the principles involved.
The components of a gharat may be listed as follows: 
1. Flume or chute: A wooden drain kind of thing that routes and rushes the water from the diverted channel to the rotor blades attached to the vertical shaft.
2. Grain Feeder: A bag or funnel, which feeds grains to the grinding millstones. 
3. Bearing: That helps the upper grinding stone to rotate freely.
4. Upper Grinding or milling stones: The circular Upper grinding stone of the mill that is directly attached to the shaft and rotates with it.
5. Lower Grinding or milling stones: The circular lower grinding mill stone through the middle of which the shaft rod passes to support the upper grinding stone. This lower grinding stone remains stationary.
6. Bush: A round wooden or a leather piece fitted to the hole in the lower grinding stone through which the shaft rod passes.
7. The vertical shaft: The wooden or iron rod that connects the rotating fan down below with the upper grinding stone.
8. Runner with hub: The thick wooden portion to which the fans are fitted and which determines the speed of the rotation of the shaft. 
9. Lifting mechanism lever: A wooden mechanism that determines the coarseness or the fineness of the grains being ground.
10. Bearing: The point at which the pin of the shaft rests giving free rotation.
source-http://www.infinityfoundation.com

Traditional water source "Dhara" & "Naula"

dhara
The ancient method of water conservation efforts led to the building of wells, ookhars, dharas, mangras, naulas, khaals, gools, tals and gharats in Uttarakhand. These stand out as examples of fine masonry work and stone architecture. Owing to their sheer storage capacity, these helped people survive through periods of droughts.
dhara
Natural water springs called dhara or mangra locally, with figures of the cow, elephant, lion and even Ganesha carved out at the outlet, that worked as taps dating back to the 10 century have also been found at Vaiterni in Gopeshwar (Chamoli). The oldest naula constructed to preserve ground water called the Jhanvi Naula at Gangolihat (Kumaon) was constructed in 1272 BC,”.
Most of these ancient water bodies that were used for drinking water supply were constructed either in the vicinity of temples or were assigned religious symbols or figures so that the sanctity of these bodies could be maintained.
Naulas
ancient water source "naula"
Naulas are life line of villages in uttaranchal. In Kumaon water harvesting and storage is given great importance. The traditional naulas or harvested springs are often beautifully made with sculptures. Many naulas are famous not only for the quality of their water but also for the architectural beauty. One observation on my recent trip was the introduction of handpumps throughout the region, especially along the roads.


ancient water source "naula"
This is a boon to tired travellers & villagers who often have to walk long distances to fetch water. This song comes to my mind...." Thando re Thando mere Pahad ki Hawa thandi, pani thando " (cool is the breeze that comes from my hills & cool is the water that flows thru it.

Kumaon Beauty बुरांस


बुरांस या बुरुंश (रोडोडेंड्रॉन / Rhododendron ) सुन्दर फूलों वाला एक वृक्ष है। बुरांस का पेड़ जहां उत्तराखंड का राज्य वृक्ष है, वहीं नेपाल में बुरांस के फूल को राष्ट्रीय फूल घोषित किया गया है। गर्मियों के दिनों में ऊंची पहाडिय़ों पर खिलने वाले बुरांस के सूर्ख फूलों से पहाडिय़ां भर जाती हैं। हिमाचल प्रदेश में भी यह पैदा होता है।
हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला बुरांस मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्त्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का इस्तेमाल कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बुजुर्ग सीजऩ के दौरान घरों में बुरांस की चटनी बनवाना नहीं भूलते। बुरांस की चटनी ग्रामीण क्षेत्रों में काफी पसंद की जाती है।
परिचय
रोडोडेंड्राँन (Rhododendron), झाड़ी अथवा वृक्ष की ऊँचाईवाला पौधा है, जो एरिकेसिई कुल (Ericaceae) में रखा जाता है। इसकी लगभग 300 जातियाँ उत्तरी गोलार्ध की ठंडी जगहों में पाई जाती हैं। अपने वृक्ष की सुंदरता और सुंदर गुच्छेदार फूलों के कारण यह यूरोप की वाटिकाओं में बहुधा लगाया जाता है। भारत में रोडोडेंड्रॉन की कई जातियाँ पूर्वी हिमालय पर बहुतायत से उगती हैं। रोडोडेंड्रॉन आरबोरियम (Rorboreum) अपने सुंदर चमकदार गाढ़े लाल रंग के फूलों के लिए विख्यात है। पश्चिम हिमालय पर कुल चार जातियाँ इधर उधर बिखरी हुई, काफी ऊँचाई पर पाई जाती हैं। दक्षिण भारत में केवल एक जाति रोडोडेंड्रॉन निलगिरिकम (R. nilagiricum) नीलगिरि पर्वत पर पाई जाती है। चित्र. रोडोडेंड्रॉन अरबोनियम
इस वृक्ष की सुंदरता के कारण इसकी करीब 1,000 उद्यान नस्लें (horticultural forms) निकाली गई हैं। इसकी लकड़ी अधिकतर जलाने के काम आती है। कुछ अच्छी लकड़ियों से सुंदर अल्मारियाँ बनाई जाती हैं। फूल से एक प्रकार की जेली बनती है तथा पत्तियाँ ओषधि में प्रयुक्त होती हैं।

बुरांस की खेती
बुरांस के कृषिकरण में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं -
जलवायुः अफ्रीका व दक्षिणी अमरीका को छोड़कर विश्व के सभी भागों में यह जंगली रूप से पाया जाता है। इसकी कुछ प्रजातियां दक्षिणी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में भी मिलती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि बुरांस नमीयुक्त शीतोष्ण क्षेत्रों में लगभग 11000 फुट की ऊंचाई तक उगाया जा सकता है।
मृदाः बुरांस के लिए अम्लीय मृदा, जिसका पीएच मान पांच या उससे कम हो, अच्छी रहती है। यद्यपि अगर मृदा का पीएच मान छह हो, तो भी अम्लीय खाद मिलाकर इसे उगाया जा सकता है। बुरांस का पेड़ रेतीली व पथरीली भूमि, जो जल्दी सूख जाए, में नहीं उगता।

पोषणः बुरांस में भोजन लेने वाली जड़ें मिट्टी की ऊपरी सतह पर होती हैं। अतः उन पर गर्मी और सूखे का दुष्प्रभाव जल्दी पड़ता है। पूर्ण रूप से सड़ी हुई गोबर की खाद अच्छी मात्रा में बिजाई से पहले पौधों में देनी चाहिए। मशरूम के उत्पाद अवशेष और मांस के उत्पाद अवशेष खाद के रूप में बुरांस के पेड़ में प्रयोग नहीं करने चाहिएं, क्योंकि इनमें चूने की मात्रा होती है, जो मिट्टी की अम्लीयता पर प्रभाव डालती है और अम्लीयता कम होने पर बुरांस के पत्ते पीले पड़ने लगते हैं।
प्रवर्द्धनः प्राकृतिक रूप से इसका प्रसारण बीज द्वारा होता है। जबकि साधारणतया कलम इसके प्रवर्द्धन का अच्छा माध्यम है।
बीजः बुरांस के पौधे ग्राफ्टिंग और शोभाकारी पौधों के प्रवर्द्धन में काम आते हैं। इसके बीज फलों के फटने से पहले एकत्रित किए जाते हैं। शरद ऋतु के अंत में या बसंत ऋतु से पहले ग्रीन हाउस या पोलीटनल में बीज बोए जाते हैं। बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए बालू और पीट के ऊपर मॉस घास की एक परत बिछानी चाहिए और तापमान 15-21 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। बीज को अंकुरण से रोपाई अवस्था में आने में तीन महीने लग जाते हैं।
कलमः जड़ कलम बुरांस के प्रवर्द्धन का मुख्य तरीका है। तना कलम भी मातृ पौधे से गर्मियों में ली जाती है। कलम में जल्दी जड़ निकलने के लिए इसके आधार पर छोटे-छोटे घाव करने चाहिएं। जबकि जड़ें ग्रीनहाउस में मिस्ट के अंदर जल्दी निकल जाती हैं। कलम से तैयार पौधे जल्दी बढ़ते हैं।
ग्राफ्टिंगः विनियर ग्राफ्टिंग इसकी सबसे अच्छी तकनीक है। ग्राफ्टिंग के अच्छे परिणाम के लिए अधिक नमी और 21 डिग्री सेल्सियस तापमान उचित है।

Saturday, January 19, 2013

घंटयाली माता, जो करती हैं सीमाओं की रक्षा


1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध में पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना को परास्त करने तनोट माता की भूमिका बड़ी अहम मानी जाती है। यहां तक मान्यता है कि माता ने सैनिकों की मदद की और पाकिस्तानी सेना को पीछे हटना पड़ा। इस घटना की याद में तनोट माता मंदिर के संग्रहालय में आज भी पाकिस्तान द्वारा फेंके गये जीवित बम रखे गये हैं। 

तनोट माता की तरह ही इस क्षेत्र में घंटयाली माता की ख्याति है। घंटयाली माता ने भी सैनिकों की सहायता की थी और तनोट माता की तरह ही इनके परिसर में भी दागे गये गोले और बम फटे नहीं। यही कारण है कि भारतीय सैनिक इन मंदिरों के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। घंटयाली माता मंदिर में सुबह शाम की पूजा भी सैनिक ही करते हैं। आस-पास के क्षेत्र में घंटयाली माता की बड़ी ख्याति है, लोग यहां अपनी मुरादें मांगने भी आते हैं। 

मान्यता है कि माता सदैव अपने मंदिर में निवास करती हैं और अपने भक्तों की पुकार सुनती हैं। घंटयाली माता की एक प्राचीन कथा है जो मंदिर की दीवार पर लिखी हुई है। कथा के अनुसार सीमावर्ती गांवों के लोगों पर कुछ लोगों ने अत्याचार करना शुरू कर दिया। गांव के एक परिवार के सभी सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया। संयोगवश एक महिला जीवित रह गयी और गांव छोड़कर अन्य स्थान पर चली गयी। 

इस दौरान महिला गर्भवती थी और कुछ समय बाद इसने एक पुत्र को जन्म दिया। बड़ा होने पर मां ने अपने पुत्र को सारी घटना बतायी। अपने परिवार वालों पर हुए अत्याचार के बारे में जानकर लड़के ने अत्याचारियों से बदला लेने की ठान ली। यह तलवार लेकर अपने पैतृक गांव लौट आया। रास्ते में घंटयाली माता का मंदिर मिला। यहां माता ने एक छोटी बच्ची के रूप में लड़के को दर्शन दिया और पानी पिलाया। माता ने कहा कि तुम बस एक व्यक्ति को मारना बाकि सब अपने आप मर जाएंगे। 

लड़के ने कहा कि यदि ऐसा हो जाएगा तो मैं वापस लौटकर अपना सिर आपके चरणों में चढ़ा दूंगा। माता के आदेश के अनुसार लड़का गांव में पहुंचा तो देखा कि एक बारात जा रही है। उसने पीछे से एक व्यक्ति को मार दिया। इसके बाद सभी लोग आपस में उलझ गये और एक-दूसरे को मारने लगे। लड़का लौटते समय माता के मंदिर में गया और माता को पुकारने लगा। माता प्रकट नहीं हुई तब लड़का अपना सिर काटकर माता के चरणों में रखने के लिए तलवार उठा लिया। 

इसी समय माता प्रकट हुई और लड़के का हाथ पकड़ कर बोली 'मैं तो यहीं विराजमान हूं, मैं अपने भक्तों को दर्शन देकर आगे भी कृतार्थ करती रहूंगी।' इस घटना के बाद से पूरे क्षेत्र में घंटयाली माता की प्रसिद्धि फैल गयी।

मेले में खूब बिक रहा हिमालय की जंबू, गंदरायण


उच्च हिमालयी इलाकों की जंबू, गंदरायण तथा अन्य औैषधीय सामग्री की गुणवत्ता आज भी लोगों को अपनी खींच रही हैै। उत्तरायणी मेले में यह वस्तुएं खूब बिकने के लिए आती हैं। मुनस्यारी की लाजवाब राजमा और बर्फीले इलाकों में पैदा होने वाली मूली के चिप्स भी लोगों को लुभा रहे हैं। 
हिमालयी इलाकों में पैदा होने वाली कीमती जड़ी-बूटियां सदियों से परंपरागत मेलाें के जरिए मध्य हिमालय, तराई और मैदानी इलाकाें तक जाती रही हैं। पिथौरागढ के धारचूला, मुनस्यारी आदि क्षेत्रों के व्यापारी हर साल उत्तरायणी के मेले में यह वस्तुएं बेचने के लिए आते हैं। इस साल भी फड़ लगाए गए हैं। धारचूला के बोन गांव निवासी किसन बोनाल ने बताया कि जंबू की तासीर गर्म होती है। इसे दाल में डाला जाता है। गंदरायण भी बेहतरीन दाल मसाला है और पेट तथा पाचन तंत्र के लिए उपयोगी है। कुटकी बुखार, पीलिया, मधुमेह और निमोनिया में, डोलू गुम चोट में, मलेठी खांसी में, अतीस पेट दर्द में, सालम पंजा दुर्बलता में लाभ दायक होता है। उत्तरायणी मेले में गंदरायण, डोलू, मलेठी आदि दस रुपये तोला, जंबू 20 रुपये, कुटकी 30 रुपये तोला के हिसाब से बिक रहा है। इनके अलावा भोज पत्र, रतन जोत सहित कई प्रकार की जड़ी बूटियां शामिल हैं। मुनस्यारी की राजमा खाने में स्वादिष्ट होती है और जल्दी पक जाती है। राजमा 140 और 160 रुपये किलो से ऊपर बिक रही है। 

हिमालयी क्षेत्र में 10 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर पैदा होने वाली मूली के चिप्स भी वहां आए हैं। व्यवसायियों ने बताया कि मूली के यह चिप्स बर्फ की हवा में सुखाए जाते हैं। इनकी सब्जी स्वादिष्ट और स्वास्थ्य वर्धक होती है तथा पेट की कब्ज और म्यूकस दूर करती है। व्यवसायियों का कहना है कि अनियंत्रित दोहन के कारण जड़ी-बूटियाें का प्राकृतिक उत्पादन कम होने से उपलब्धता प्रभावित हुई है। वह खेतों में उत्पादन करके बेचते हैं। इसके बावजूद इन्हें लाने ले जाने में पुलिस और वन महकमा परेशान करता है।

Friday, January 18, 2013

अल्मोड़ा स्वामी विवेकानंद



अल्मोड़ा। अल्मोड़ा वह नगरी है जिससे स्वामी विवेकानंद का गहरा नाता रहा है। स्वामी विवेकानंद यहां दो बार आए और कई दिनों तक रहकर साधना की। पहली बार 1890 की यात्रा के दौरान काकड़ीघाट में स्थित पीपल के पेड़ के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। अल्मोड़ा में वह कई दिनों तक खजांची मोहल्ला में स्व.बद्री शाह के मेहमान बनकर भी रहे। करीब 115 साल पहले स्वामी विवेकानंद जब दूसरी बार अल्मोड़ा पहुंचे तो अल्मोड़ा में उनका भव्य स्वागत हुआ। पूरे नगर को सजाया गया था और लोधिया से एक सुसज्जित घोड़े में उन्हें नगर में लाया गया और 11 मई 1897 के दिन खजांची बाजार में उन्होंने जन समूह को संबोधित किया। इस स्थान पर तब पांच हजार लोग एकत्र हो गए थे। 
स्वामी विवेकानंद ने अपने संबोधन में कहा था ‘यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है। भारत जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है। यह वह पवित्र स्थान है जहां भारत का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन का अंतिम काल बिताने का इच्छुक रहता है। यह वही भूमि है जहां निवास करने की कल्पना मैं अपने बाल्यकाल से ही कर रहा हूं। मेरे मन में इस समय हिमालय में एक केंद्र स्थापित करने का विचार है और संभवत: मैं आप लोगों को भली भांति यह समझाने में समर्थ हुआ हूं कि क्यों मैंने अन्य स्थानों की तुलना में इसी स्थान को सार्वभौमिक धर्मशिक्षा के एक प्रधान केंद्र के रूप में चुना है।’
उन्होंने आगे कहा कि ‘इन पहाड़ों के साथ हमारी जाति की श्रेष्ठतम स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। यदि धार्मिक भारत के इतिहास से हिमालय को निकाल दिया जाए तो उसका अत्यल्प ही बचा रहेगा। अतएव यहां एक केंद्र अवश्य चाहिए। यह केंद्र केवल कर्म प्रधान न होगा, बल्कि यहीं निस्तब्धता, ध्यान तथा शांति की प्रधानता होगी। मुझे आशा है कि एक न एक दिन मैं इसे स्थापित कर सकूंगा।’ उल्लेखनीय है कि 1916 में स्वामी विवेकानंद के शिष्यों स्वामी तुरियानंद और स्वामी शिवानंद ने अल्मोड़ा में ब्राइटएंड कार्नर पर एक केंद्र की स्थापना कराई। जो आज रामकृष्ण कुटीर नाम से जाना जाता है। 

जान बचाने वाले फकीर को पहचान गए
अल्मोड़ा। अल्मोड़ा की इस अभिनंदन समारोह के दौरान स्वामी विवेकानंद उस फकीर को पहचान गए जिसने 1890 की हिमालय यात्रा के दौरान के करबला के निकट स्वामी जी के अचेत होने पर खीरा खिलाकर उनकी जान बचाई थी। स्वामी जी उस फकीर के पास गए और उसे दो रुपये भी दिए। 
1897 में तीन माह तक अल्मोड़ा रहे स्वामी विवेकानंद
अल्मोड़ा। 1897 के इस भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद करीब तीन माह तक देवलधार और अल्मोड़ा में निवास किया। इस अंतराल में उन्होंने स्थानीय लोगों के आग्रह पर अल्मोड़ा में तीन बार विभिन्न सभागारों में भी व्याख्यान दिया। 28 जुलाई 1897 को अल्मोड़ा के तत्कालीन इंग्लिश क्लब में हुए व्याख्यान की अध्यक्षता तत्कालीन गोरखा रेजीमेंट के प्रमुख कर्नल पुली ने की। इसमें कई अंग्रेज अफसरों के अलावा लाला बद्री शाह, चिरंजीलाल शाह, ज्वाला दत्त जोशी आदि भी उपस्थित रहे। स्वामी विवेकानंद दो अगस्त 1897 में स्वामी विवेकानंद मैदान की तरफ लौट गए।

Wednesday, January 16, 2013

Important festivals celebrated in Kumaon


Important festivals celebrated in Kumaon
  •   Uttrayani ( Makar sakranti)
  •  Lakshmi pooja 
  •  Basant Panchmi
  •  Bhitauli
  •  Harela
  •  Janyunpunyu or Rakshabandhan
  •  Batsavitri
  •  Ganga Dusshera
  •  Dikar Puja
  •  Olgi or Ghee Sankarti
  •  Khatarua
  •  Ghuian Ekadashi
  •  Samvatsar padyaoo 
  •  Govardhan
  •  Phooldei

  •   Uttrayani ( Makar sakranti)

Uttarāyaṇa (उत्तरायण), or Uttarayana, is the six-month period between Winter solstice (around December 22) andSummer solstice (around June 21), when the sun apparently travels towards the north on the celestial sphere. But it is common to erroneously refer it to as the period between the Makar Sankranti (which currently occurs around January 14) and Karka Sankranti (which currently occurs around July 18). The name Uttarayana comes from joining two different Sanskrit words "Uttara" (North) and "ayana" (movement towards). The period from June 21 to December 22 is known is Dakshināyana (दक्षिणायण) 

  • Phooldei

Phool Dei is celebrated on the first day of the month of Chaitra in mid March. On this day, young girls conduct most of the ceremonies. In some places this festival is celebrated throughout the month with the advent of spring. During this festival young girls go to all the houses in the muhalla or the village with plates full of rice, jaggery, coconut, green leaves and flowers. They offer their good wishes for the prosperity of the household and are given blessings and presents (sweets, gur, money etc) in return. 
phool dei, chamma dei
deno dwar, bhur bhakar
yo dei sei namashkar, puje dwar

  • Olgi or Ghee Sankarti

Olgia is celebrated on the first day of Bhado (middle of August), when the harvest is lush and green, vegetables are in abundance and the milch animals very productive. In ancient times sons-in-law and nephews would give presents to fathers-in-law and maternal uncles, respectively, in order to celebrate Olgia. Today agriculturists and artisans give presents to the owners of their land and purchasers of their tools and receive gifts and money in return. Binai (oral harp), datkhocha(metallic tooth pick), metal calipers, axes, ghee, vegetables and firewood are some of the presents exchanged on this day. People put ghee on their foreheads and eat ghee and chapatis stuffed with 'urad' dal. It is believed that walnuts sweeten after this festival. This festival, which is a celebration of the produce of the land, is now seldom celebrated.
  • Batsavitri

This festival is celebrated on the Krishna amavasya (last day of the dark half of the month) of Jyestha and on the day married women worship Savitri and the Bat or banyan tree (Ficus benghalensis) and pray for the well being of their spouses. Women observe fast in honour of Savitri and Satyavan and remember how Savitri through her intense devotion saved her husband from the claws of death.
  • Basant Panchmi

The festival of Basant Panchami celebrates the coming of the spring season. This festival, which also signals the end of winter, is generally celebrated during Magh (January - February). During this festival people worship the Goddess Saraswati, use yellow handkerchiefs or even yellow cloths and in a few places people put a yellow tilak on their foreheads. This festival also marks the beginning of holi baithaks.
  • Lakshmi Puja
In Kumaon, the pooja of the goddess of wealth is carried out in a strange and unique way with three sugarcane sticks placed like in a large plate to form a sort-of tripod and a fruit like a Malta or an orange placed right in the middle of it. The Malta (or orange) is ‘dressed’ in a red chunni with golden lining. Assuming this very fruit to be Goddess Lakshmi, the fruit is worshipped along with silver coins. This tradition is a true example of the Kumaoni’s faith in God almighty.
  • Bhitauli
On the first of the navaratris (nine day fasting period) in the month of Chaitra, women sow seven types of grains. The germination of these grains symbolizes the future harvest. On the tenth day, the yellow leaves, called Harela, are cut people put them on their heads and tuck them behind their ears. During this very month of Chaitra (March-April) brothers send gifts for their sisters. These presents are called ‘Bhitauli’, thus the name! 
  • Harela
Celebrated in the month of Shravan (July- august), the month of festivals, to commemorate the wedding of Lord Shiva and Parvati, the festival is also associated with the arrival of the rainy season and the new harvest. On this day people make clay statues (Dikaras) of Shiva, Parvati, Ganesh etc. and worship them. The overworked bullocks find a rare a rest on the occasion of Harela. 
  • Ganga Dusshera 
It is a very popular festival of the hills and is celebrated to commemorate the arrival of the River Ganges on earth which, traditionally, is called Gangavataran. It is held over the first 10 days of the month of Jyeshtha (in June). A dip in the Ganga on this day, according to mythological and popular beliefs, cleanses all the sins of the mortals. A mela is also held on the occasion at Purnagiri. 

  • Khatarua
Khatarua signifies the arrival of the autumn season, a very important time of the year for the pastoral - agricultural society and is celebrated on the first day of the month of Ashwin in mid September. Bonfires, around which children dance, and offerings of cucumber to the fire of Khatarua mark the celebrations. Cucumbers’ offerings, as is the popular belief, destroy all evil influences.