कुमाऊँ की संस्कृति यहाँ के मेलों में समाहित है । रंगीले कुमाऊँ के मेलों में ही यहाँ का सांस्कृतिक स्वरुप निखरता है । धर्म, संस्कृति और कला के व्यापक सामंजस्य के कारण इस अंचल में मनाये जाने वाले उत्सवों का स्वरुप बेहद कलात्मक होता है । छोटे-बड़े सभी पर्वों, आयोजनों और मेलों पर शिल्प की किसी न किसी विद्या का दर्शन अवश्य होता है । कुमाऊँनी भाषा में मेलों को कौतिक कहा जाता है । कुछ मेले देवताओं के सम्मान में आयोजित होते हैं तो कुछ व्यापारिक दृष्टि से अपना महत्व रखते हुए भी धार्मिक पक्ष को पुष्ट अवश्य करते है । पूरे अंचल में स्थान-स्थान पर पचास से अधिक मेले आयोजित होते हैं जिनमें यहाँ का लोक जीवन, लोक नृत्य, गीत एवं परम्पराओं की भागीदारी सुनिश्चित होती है । साथ ही यह धारणा भी पुष्टि होती है कि अन्य भागों में मेलों, उत्सवों का ताना बाना भले ही टूटा हो, यह अंचल तो आम जन की भागीदारी से मनाये जा रहे मेलों से निरन्तर समद्ध हो रहा है ।
मेला चारे जिस स्थान पर भी आयोजित हो रहा हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, अवसर ऐतिहासिक हो, सांस्कृतिक हो, धार्मिक हो या फिर अन्य कोई उल्लास से चहकते ग्रामीणों को आज भी अपनी संस्कृति, अपने लोग, अपना रंग, अपनी उमंग, अपना परिवार इन्हीं मेलों में वापस मिलते हैं । सुदूर अंचलों में तो बरसों का बिछोह लिये लोग मिलन का अवसर मेलों में ही तलाशते हैं ।
उत्तरायणी मेला
उत्तरायणी मेला उत्तरांचल राज्य के बागेश्वर शहर में आयोजित होता है। तहसील व जनपद बागेश्वर के अन्तर्गत सरयू गोमती व सुष्प्त भागीरथी नदियों के पावन सगंम पर उत्तरायणी मेला बागेश्वर का भव्य आयोजन किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन सगंम में स्नान करने से पाप कट जाते है बागेश्वर दो पर्वत शिखरों की उपत्यका में स्थित है इसके एक ओर नीलेश्वर तथा दूसरी ओर भीलेश्वर शिखर विद्यमान हैं बागेश्वर समुद्र तट से लगभग 960 मीटर की ऊचांई पर स्थित है।
उत्तरांचल राज्य के चम्पावत जनपद का प्रवेश द्वार टनकपुर प्राचीन मानसरोवर यात्रा, तथा कालिदास वर्णित अलकापुरी है। इसी क्षेत्र में मॉ पूर्णगिरि पीठ सर्वोपरि महत्व रखता है। पौराणिक साहित्य वास्तव में श्रुति एवं स्मृति का इतिहास है। यह एक प्रसंग है जो कि ऋषि-मुनियों द्वारा कण्ठस्थ कर अग्रसारित किया जाता है।
देवीधूरा मेला
समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।
नैनीताल महोत्सव
उत्तर भारत की प्रख्यात पर्यटक नगरी नैनीताल में नगर पालिका परिषद नैनीताल के द्वारा वर्ष 1952 से माह अक्टूबर में शरदोत्सव का आयोजन प्रतिवर्ष किया गया। वर्ष 1970-71 से पर्यटन विभाग द्वारा इस आयोजन को अपनी ओर से आर्थिक सहायता प्रदान की गयी। तद्दोपरान्त यह आयोजन नगर पालिका परिषद नैनीताल एवं पर्यटन विभाग के संयुक्त
तत्वाधान सेआयोजित किया जाता रहा है। जिसमें विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं क्रीड़ा कार्यक्रमों का आयोजन होता है। इस आयोजन से उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में आफ सीजन के दौरान भी पर्यटकों का गमनागमन बना रहता है ।
पिरान कलियर उर्स
भारत के उत्तरांचल राज्य के रुड़की शहर में पिरान कलियर उर्स का आयोजन होता है। मेले का आयोजन रूडकी के समीप ऊपरी गंग नहर के किनारे जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिरान कलियर गांव में होता है। इस स्थान पर हजरत मखदूम अलाउदीन अहमद ‘‘साबरी‘‘ की दरगाह है। यह स्थान हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता का सूत्र है। यहां पर हिन्दु व मुसलमान मन्नते मांगते है व चादरे चढाते है। मेले स्थल पर दरगाह कमेटी द्वारा देश/विदेश से आने वाले जायरिनों/श्रद्वालुओं के लिये आवास की उचित व्यवस्था है।दरगाह के बाहर खाने पीने की अच्छी व्यवस्था उपलब्ध है।
कुमायूँ महोत्सव
उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति, लोक कलाओं, वेशभूषा, व्यंजनों आदि के संबंध में देशी एंव विदेशी पर्यटकों को जानकारी प्रदान करने के उद्देश्य से कुमायूँ मण्डल में कुमायूँ महोत्सव का आयोजन किया जाता है। इन दोनों ही महोत्सवों का आयोजन अधिकांशत: महा अक्टूबर से माह फरवरी के मध्य किया जाता है।
नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा
समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।
स्याल्दे - बिखौती का मेला
अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है । हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है । यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है । मेला दो भागों में लगता है । पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में । मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं । चैत्र की फूलदेई संक्रान्ति से मेले के लिए वातावरण तैयार होना शुरु होता है । गाँव के प्रधान के घर में झोड़ों का गायन प्रारम्भ हो जाता है ।
चैत्र मास की अन्तिम रात्रि को विभाण्डेश्वर में इस क्षेत्र के तीन धड़ों या आलों के लोग एकत्र होते हैं । विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज सहित इनमें रास्ते में मिलते जाते हैं । मार्ग परम्परागत रुप से निश्चित है । घुप्प अंधेरी रात में ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं से मशालों के सहारे स्थानीय नर्तकों की टोलियाँ बढ़ती आती है इस मेले में भाग लेने । स्नान करने के बाद पहले से निर्धारित स्थान पर नर्तकों की टोलियाँ इस मेले को सजीव करने के लिए जुट जाती है ।
विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती है । इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । मान्यता है कि जो उत्तरायणी पर नहीं नहा सकते, कुम्भ स्नान के लिए नहीं जा सकते उनके लिए इस दिन स्नान करने से विषों का प्रकोप नहीं रहता । अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध मेला है, इस क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं ।
प्रसिद्ध सोमनाथ मेला
सोमनाथ का मेला कुमाऊं का प्राचीन व सबसे बड़ा व्यापारिक मेला माना जाता था। पुराने लोग बताते हैं कि कुमाऊं का सोमनाथ व गड़वाल का कांडा मेला सबसे बड़े मेले थे। सोमनाथ का मेला प्रारंभ में दस पंद्रह दिन का चलता था। उस समय मासी में बाजार व दुकाने न के बराबर थी। यद्यपि कत्युरी व चन्द राजाओं ने अपनी सेना या अपनी प्रजा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए हाट व बाजार बसाये थे। काशीपुर, मुरादाबाद, गडवाल के व्यापारी घोड़ों व खच्चरों व कुलियों के द्वारा अपना सामान बेचने के लिए सोमनाथ के मेले में उस समय रामनगर नहीं बसा हुआ था, पहाड़ के लोग उस समय साल भर का आवश्यक सामान मेले में सामान खरीदने के साथ साथ अपने मित्रों व परिचितों से मिलने के लिए भी आते थे। उस समय यातायात के साधन नही थे। उस युग में मेले ही संचार, मनोरंजन, मेल मिलाप व आपसी सम्बन्ध बनाने के साधन थे। मेरा मानना है कि सोमानाथ का मेला आज से ढाई सौ वर्ष पूर्व उत्तरकालीन चन्द राजाओं के शासन कल में प्रारंभ हुआ होगा।
मोहान पशु मेला रामनगर
कुमाऊं के प्रवेश द्वार रामनगर के समीपवर्ती कस्बे मोहान में कई दशकों से लगने वाला पशु मेला सरकार के तुगलकी फरमानों से कई सालों से बंद पड़ा है। जिससे पहाड़ के पशुपालक परेशान हैं। दरअसल यह मेला पर्वतीय अंचल की ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था से सीधे रूप से जुड़ा है। मोहान पशु मेले में पहाड़ के काश्तकार बूढ़े जानवरों को बेचने पहुंचते थे और खेतीबाड़ी के लिए नए जानवर खरीदकर ले जाते थे, लेकिन मेले पर प्रतिबंध से अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।
कुमाऊं की सल्ट, भिक्यासैंण, चौखुटिया, रानीखेत आदि कई तहसीलों के सैंकड़ों गांवों के काश्तकार बैल खरीदने के लिए रामनगर के मोहान कस्बे में हर साल जाड़ों में आयोजित होने वाले पशु मेले में पहुंचते थे। पशु मेले का आयोजन नैनीताल जिला पंचायत के संरक्षण में कई दशकों से हो रहा था। मेला नैनीताल जिला पंचायत की आमदनी का भी जरिया था। मेले की व्यवस्थाओं के लिए जिला पंचायत उसका काम ठेके पर देती थी। मेले में बिक्री के लिए पहुंचने वाले जानवरों के बदले टैक्स वसूला जाता था। यह मेला कई लोगों की आजीविका का साधन भी था। करीब डेढ़ दो महीने तक चलने वाले मेले में कई लोगों को सीधे रोजगार भी मिलता था। मेले में काश्तकार हजारों की तादाद में जानवर लेकर पहुंचते थे। इस दौरान मोहान के कई लोग जानवरों के लिए घास बेचने का धंधा कर लेते थे, तो कई लोग मेला स्थल में अस्थाई दुकानें व ढाबे खोलकर अच्छी खासी आमदनी कर लेते थे।
मोहान का पशु मेला पहाड़ व मैदान के लोगों का आपसी मेल-मिलाप का भी एक जरिया था। इससे लोगों में सामाजिक एकता का भाव जागता था। 2007 में प्रदेश में गौवंश संरक्षण अधिनियम लग जाने से मेला बंद पड़ा है। इससे जहां बैलों के क्रय-विक्रय के दरवाजे बंद हो गए हैं, वहीं अब पहाड़ के लोग पशुओं को आवारा छोड़ने को विवश हैं। इससे गोवंश पशुओं की दुर्दशा बढ़ गई है और खेतीबाड़ी भी चौपट हो गई है।
कालसन का मेला
कालसन का मेला नैनीताल जनपद के टनकपुर के पास सूखीढ़ाँग व श्यामलाताल की पावन भूमि में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है । यह स्थान टनकपुर से २६ कि.मी. की दूरी पर है । कालसन के बारे में स्थानीय लोगों में तरह-तरह की किवदन्तियाँ प्रचलित हैं । कहा जाता है कि कालसन का मंदिर कभी अन्नापूर्णा शिखर के पास शारदा नदी के किनारे बना हुआ था जिसे बाद में ग्रामवासियों ने सुरक्षा की दृष्टि से निगाली गाँव के पास स्थानान्तरित कर दिया । जहाँ पर ग्रामवासियों ने कालसन देवता को स्थानान्तरित किया था, ग्रामवासियों की श्रद्धा के वशीभूत होकर कालसन भी वहीं श्यामवर्णी लिंग रुप में प्रकट हो गये परन्तु अपनी प्राचीन जगह में उन्होंने लोगों द्वारा अर्पित फल-फूल और सामान को पत्थरों के ढ़ेर में बदल दिया । कहा जाता है कि कालसन देवता महाकाली के उपासक थे ।
वर्तमान में यहाँ देवता थान में धनुषवाण, त्रिशुल आदि का ढेर है । सम्भवत: यह ढेर यहाँ इन वस्तुओं को देवता को अपंण करने की परम्परा के कारण है । इन त्रिशुलों में लोग दीप जलाते हैं तथा काले रंग का वस्र भी बाँधते हैं । उत्तराखंड के अन्य मन्दिरों की तरह यहाँ भी घंटियाँ, ध्वजा आदि चढ़ाने की परम्परा है । भूत, प्रेत आदि बाधाओं से पीड़ित व्यक्ति यहाँ ईलाज के लिए भी लाये जाते हैं ।
पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है । इस मेले में लोग कालसन देवता से मनौतियाँ मनाने, अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रार्थना करने आते हैं तथा देवता को नारियल इत्यादि अर्पित करते हैं । पहले यह मेला एक हफ्ते तक चलाता था ।
जिया रानी का मेला रानी बाग
उत्तरायणी में ही प्रतिवर्ष रानीबाग में इतिहास प्रसिद्ध बीरांगना जिया रानी के नाम पर जिया रानी का मेला लगता है । रानीबाग, काठगोदाम से पाँच कि.मी. दूर अल्मोड़ा मार्ग पर बसा है । रानीबाग में कव्यूरी राजा धामदेव और ब्रह्मदेव की माता जियारानी का बाग था । कहते हैं कि यहाँ जिया रानी ने एक गुफा में तपस्या की थी । रात्रि में जिया रानी का जागर लगता है । कव्यूरपट्टी के गाँव से वंशानुगत जगरियें औजी, बाजगी, अग्नि और ढोलदमुह के साथ कव्यूरी राजाओं की वंशावलि तथा रानीबाग के युद्ध में जिया रानी के अद्भूत शौर्य की गाथा गाते हैं । जागरों में वर्णन मिलता है कि कव्यूरी सम्राट प्रीतमदेव ने समरकंद के सम्राट तैमूरलंग की विश्वविजयी सेना को शिवालिक की पहाड़ी में सन् १३९८ में परास्त कर जो विजयोत्सव मनाया उसकी छाया तथा अनगूंज चित्रश्वर रानीबाग के इस मेले में मिलती है । जिया रानी इस वीर की पत्नी थीं । उत्तरायणी के अवसर पर यहाँ एक ओर स्नान चलता है तो दूसरी ओर जागर, बैर इत्यादि को सुनने वालों की भीड़ रहती है ।
थल मेला
थल में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर ही इस मेले का केन्द्र है । थल के अन्य मंदिरों में बालेश्वर मंदिर की महिमा का वर्णन भी मिलता है । इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का मेले के अवसर पर विशेष दर्शन प्राप्त किया जाता है । स्कन्द पुराण के यात्री को रामगंगा में स्नानकर बालीश तथा शिव के गणों का पूजन कर पावन पर्वत की ओर जाना चाहिए । आज भी थल यात्री मानसरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं । यह भी कहा जाता है कि वर्ष १९४० में रामगंगा नदी के तट पर क्रान्तिवीरों ने जालियाँवाला दिवस मनाया था तभी से इस स्थान पर मेले के आयोजन का प्रथम सूत्रपात हुआ था तथा इस स्थान पर मेले की पृष्ठभूमि बनी । पहाड़ के अन्य मेलों की तरह यहाँ भी सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ बाज़ी गयीं तथा कालान्तर में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक व व्यापारिक मेला बन गया ।
जौलजीवी मेला
जौलजीवी नामक कस्बा पिथौरगढ़ में मानसरोवर के ऐतिहासिक मार्ग पर अवस्थित है । यह पिथौरगढ़ जिला मुख्यालय से ६८ कि.मी. की दूरी पर बसा है । यहाँ प्रतिवर्ष १४ नवम्बर, बाल दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध मेला आयोजित होता है ।
जौलजीवी मेले को प्रारम्भ करने का श्रेय पाल ताल्लुकदार स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है । उन्होंने ही यह मेला सन् १९१४ में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर । स्कनदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे!
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