Tuesday, February 05, 2013

देवीधुरा का बगवाल मेला


उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल के चम्पावत जनपद का देवीधुरा नामक स्थान वाराही देवी के प्राचीन मन्दिर के कारण दूर दूर तक जाना जाता है। इसी वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को "बगवाल" मेले का आयोजन किया जाता है। बगवाल मेले की विशेषता यह है की इसमें एक विशेष प्रकार की प्रतियोगिता आयोजित होती जिसमें दो दल एक दूसरे पर पत्थरों की वर्षा करते हैं। अपने आप में एक अनोखी एवं विशिष्ट इस प्रतियोगिता के कारण बगवाल मेला उत्तराखण्ड के मेलों में अपनी अलग पहचान रखता है। पिछ्ले कुछ वर्षों में टी.वी. मिडिया के प्रसार के कारण तो अब यह मेला राष्ट्रीय पहचान बनाने लगा है।
यह ऎतिहासिक मेला कितना प्राचीन है, इस विषय में विभिन्न मत-मतान्तर हैं। लेकिन इस बात पर आम सहमति है कि यहां पर पूर्व में प्रचलित नरबलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल मेले का आयोजन होता है। प्राचीन लोक मान्यता है कि वाराही देवी ने, देवीधुरा के सघन वन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देने के प्रतिफल के रुप में स्थानीय जनों से नरबलि की मांग की। जिसके कारण चंद शासनकाल तक महर और फर्त्याल जातियों द्वारा क्रम से यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। पर बाद में स्थानीय लोगों द्वारा निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से घायल व्यक्तियो के, एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जाये। यह भी निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी। इस प्रकार उसी प्रथा को तब से आज तक भी निभाया जा रहा है। 
बगवाल परंपरा की शुरूवात कब हुयी इस बारे में अभी तक कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है। ज्यादातर इतिहासकारों के अनुसार महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है। जो इस युद्ध में प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था। अगर इस पर विश्वास किया जाये तो पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है। वाराही देवी मन्दिर के आस-पास काफ़ी बडे़ कई पत्त्थर देखे जा सकते हैं। इन पत्थरों के बारे में कहा जाता है कि इन्हें पांडव अपने खेल के लिए गेंद के रूप में प्रयोग करते थे। कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं, तो कुछ इस परंपरा क खास जाति से भी सम्बन्धित करते हैं।
बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान
में महर और फ़र्त्याल जाति के लोग मुख्य रूप से सजीव करते हैं। इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल (रिन्गाल या निंगाल जो बांस के ही एक किस्म है) की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं। सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में दण्ड तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं। बगवाल प्रतियोगिता में क्या बच्चे, क्या बूढ़े और क्या जवान, सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं तथा। वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं। देवी की पूजा के विभिन्न क्रिया कलापों का दायित्व विभिन्न जातियों का है। फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं। मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं। भैंसिरगाँव के गहढ़वाल राजपूत बलि के भैंसे पर पहला प्रहार करते हैं। 
बगवाल का एक निश्चित विधान है, मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह के लगभग चलते हैं। लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है। बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है। जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही, सम्बन्धित चार खामों (ग्रामवासियों का समूह) गहढ़वाल, चम्याल, वालिक तथा लमगडि़या के द्वारा सम्पन्न किया जाता है। मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दूक में बन्द रहता है जिसके समक्ष पूजन सम्पन्न होता है। यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है। जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथों से देवी-विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी। इस बीच अठ्वार का पूजन होता है, जिसमें सात बकरे और एक भैंसे का बलिदान दिया जाता है।
पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है। गहढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है। चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं। द्यौकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं। इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है। मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम के लिए अलग-अलग होती है। उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं। दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है। फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं।
दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है। इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है। ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं। धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। फर्रों से मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है। 
बगवाल के निर्णायक(पुजारी) द्वारा प्रतियोगिता का समापन शंखनाद किये जाने से होता है। समापन के साथ ही एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं। जिसके बाद मंदिर में पूजा अर्चन का कार्यक्रम चलता है। कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग सुरक्षा हेतु किया जाने लगा। बगवाल प्रतियोगिता के नियमों के अनुसार आज भी किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाकर पत्थर मारना निषिद्ध है।
बगवाल के बाद रात्रि को मंदिर में देवी जागरण का आयोजन होता है। श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी निकाली जाती है। यहां पर देवी को पशुबलि दिये जाने की परंपरा भी है, जिसमें कई भक्त देवी को बकरे का बलिदान देते हैं। कुछ भक्तगण देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार अर्थात सात बकरे तथा एक भैंसे की बलि भी अर्पित करते हैं। यहां पर दो बड़े पत्थरों की आकृति इस प्रकार से है कि उनके बीच के संकरे अंतराल से साधारण व्यक्ति भी सीधे नही निकल पाता। जबकि एक मनुस्य से आकार में कई गुना बड़ा भैंसा आराम से इन दो पत्थरों के बीच से बिना किसी परेशानी के सीधा निकल जाता है।
बगवाल मेले की अनोखी व प्राचीन परंपराओं के कारण दूर दूर से लोग इस आयोजन को देखने आते हैं। दृश्य संचार-साधनों के प्रसार के बाद तो अब यह मेला राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो चुका है। बगवाल के दिन देश के लगभग सभी न्यूज चैनल्स पर बगवाल प्रतियोगिता का लाईव टेलीकास्ट देखा जा सकता है। जो अपने आप में इस मेले की लोकप्रियता को प्रकट करता है। अब तो बगवाल देखने के लिए देवीधुरा आने वाले दर्शकों की गिनती लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। लेकिन इसकी लोकप्रियता बढ़ने के साथ साथ यहां पर सुरक्षा व्यवस्था पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है, क्योंकि इस प्रतियोगिता में दर्शक भी पत्थरों की मार से घायल होते हैं। एक छोटे से स्थान पर लाख लोगों के एकत्र होने से भगदड़ जैसी स्थिति उत्पन्न ना हो इसका विशेष प्रबन्ध भी भविष्य में किया जाना आवश्यक है।

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